• खंडहर में तब्दील हुआ करोड़पति शिवमठ

    दियों तक नागा साधुओं ने जहां धूनी रमाई... आज वहां सन्नाटा पसरा है। मन्नत मांगने वालों की जहां कभी लंबी कतारें लगती थीं, अब उस देहरी पर चढऩे से भी लोग डरते हैं। 1100 साल से सीना ताने खड़ा राजस्थान का सबसे प्राचीन शिवमठ अब अपने वजूद को बचाने के लिए वक्त से लड़ रहा है। करोड़ों की संपत्ति भी इसे धराशायी होने से नहीं बचा पा रही... जी हां, यहां बात हो रही है दसवीं सदी के साधुओं की साधना स्थली चंद्रेसल मठ की। जिसे बचाने के लिए अब तक हुईं सारी सरकारी घोषणाएं कागजी ही साबित हुईं। 

    चंद्रलोई नदी के किनारे को नवीं सदी के आखिर में नागा साधुओं ने अपनी साधना के लिए चुना। कभी मगरमच्छों का सबसे बड़ा ठिकाना माने जाने वाला यह इलाका इन साधुओं को इतना भाया कि उन्होंने यहीं धूनी रमा ली और फिर तिकना-तिनका जोड़कर खुद ही अपने आराध्य का मंदिर बनाने लगे। दसवीं सदी की शुरुआत होने तक इस इलाके की ख्याति नागाओं के हर गढ़ में फैल चुकी थी और दूर-दूर से साधू यहां दीक्षा लेने आने लगे। नतीजन निर्माणाधीन मंदिर का स्वरूप बदलकर मठ में तब्दील हो गया। इतिहासकार फिरोज अहमद के मुताबिक यह कच्छबघात शैली के प्रमुख निर्माणों में से एक है। साधुओं ने करीब 1.2 एकड़ इलाके में भगवान शिव का मंदिर और साधकों के रहने के लिए कमरों का निर्माण किया।  

    चंद्रेसल मठ की महत्ता का अंदाज पदमश्री इतिहासकार डॉ. वीडी वाकड़ के उस उल्लेख से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने लिखा कि चंद्रेसल ही एकमात्र ऐसी जगह है जहां शुतुरमुर्ग के अंडों पर पेंटिंग के अवशेष मिले हैं। धराशायी हुई धरोहर पुरातत्व विभाग की ओर से संरक्षित स्मारक घोषित करने के बाद साधुओं के हाथ बंध गए तो उन्होंने यहां से किनारा करना ही बेहतर समझा, लेकिन संरक्षण की जिम्मेदारी संभाल रहे महकमे ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। नतीजतन आजादी के बाद ग्यारह सौ साल पुरानी इस धरोहर की देखभाल करने वालों का टोटा पड़ गया और रखरखाव के अभाव में प्राचीन इमारत दरकने लगी।
     दूसरी विडम्बना यह रही कि चंद्रेसल मठ की ख्याति साधना और दीक्षा स्थली के साथ-साथ सबसे समृद्ध ठिकाने के रूप में भी थी। जिसके चलते मठ खाली होते ही खजाने की तलाश में लोगों ने जहां मन किया खुदाई कर डाली। कुछ नहीं मिला तो लोग यहां की प्राचीन मूर्तियां ही चुरा ले गए। मेला प्रबन्ध समिति के सचिव प्रेमशंकर गौतम ने बताया कि रखरखाव के आभाव में मंदिर का मुख्य मंदिर तो दो साल पहले ही धराशायी हो गया।

    करोड़ों की संपत्ति भी काम नहीं आई 

    मंदिर के नाम 300 बीघा जमीन है। जिस पर खेती करने के लिए तहसील प्रशासन हर साल लीज देता है। लीज के लिए बकायदा नीलामी होती है और जो बोली जीतने वाले से मिली रकम भगवान श्री चंद्रेसल के नाम से खुले बैंक खाते में जमा की जाती है। इस खाते में फिलहाल डेढ़ करोड़ रुपए से भी ज्यादा की रकम जमा है, लेकिन इतना पैसा होने के बावजूद मंदिर को ध्वस्त होने से नहीं बचाया जा सका। आला अफसर इसके लिए व्यवस्था को दोषी ठहराते हुए कहते हैं कि मंदिर के खाते से पैसा कोर्ट और सरकार के आदेश से ही निकल सकता है। जिसकी प्रक्रिया बेहद लंबी है। 

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