• यहां सोई है चौहानों की हाड़ा खाप






               राजपूताणे का इतिहास परमवैभवशाली चौहान वंश का जिक्र किए बिना शुरू ही नहीं हो सकता। इन्ही चौहानों की चौदहवीं खाप थी हाड़ा चौहान। महमूद गजनवी ने जब सोमनाथ पर हमला किया तब लक्ष्मण नाडोल के पुत्र अश्वराज के पोत्र अनुराज ( भाणवर्धन ) व् अजबराज ( खिंचियों के आदी पूर्वज ) सहित चौहानों ने मुस्लिम सेना का सामना किया |
     उस समय अनुराज ( भाणवर्धन ) के पुत्र विजयपाल बुरी तरह घायल हो गए। किवदंती है कि उनके शरीर में महज अस्थिपंजर ही बचे रह गए, इसिलए उन्हें अस्थिपाल भी कहा गया। चौहान रणधीर की पुत्री सूराबाई की सेवा से अस्थिपाल जीवित बचे और उनके नेतृत्व में चौहानों ने फिर से आसलकोट ( नाडोल ) पर अधिकार कर लिया। अस्थिपाल लोकगाथाओं में हाड़ा कहलाए और उनके वंशज (बेटे हरिराज से) हाड़ा चौहान खाप की शुरुआत हुई। यह समय होगा करीब ई.स. 1025 से 1082 के बीच का।
     वंशावली के क्रम में रखें तो लक्ष्मण नाडोल के पुत्र अश्वराज जिन्हें कई अभिलेखों में अश्वपाल तो कई जगह अधिराज लिखा गया है। उनके पुत्र माणक राव और क्रमशः सांभरण, जैतराव, अनंगराव, कुंतसी, विजयपाल (अस्थिपाल) और फिर हरराज (हाड़ा)। इस वंशावली में हरराज के बाद बंगदेव और देव हाड़ा हुए। हाड़ा हरिराज के पोते देवा ने बूंदी के ऊषरा गोत्रीय मीणा सरदार बूंदा को हराकर ( विक्रम संवत 1298 में) यहां राज स्थापित किया। उन्हीं के वंशज समर सिंह के पुत्र जेतसिंह ने अकेलगढ़ और आसलपुर के आसपास तकरीबन सन 1274 में कोटहा (कोटिया) भील को परास्त कर कोटहा (जिसे अब कोटा कहा जाता है) में हाड़ा वंश की नींव रखी।

     देवा हाड़ा की वंशावली के तेरहवीं पीढ़ी में आए राव रतन सिंह (सन 1608 से 1631)। जिस समय शहजादे खुर्रम (शाहजहां) ने अपने पिता जहांगीर के खिलाफ बगावत का बिगुल बजाया राव रतन सिंह उस वक्त जहांगीर के साथ दक्षिण के युद्ध में व्यस्त थे, लेकिन उनके छोटे बेटे राव माधव सिंह बुरहानपुर के किले में खुर्रम के साथ मौजूद थे। इस लड़ाई में माधोसिंह ने खुर्रम का साथ दिया और उसे कैद से निकाल दिया। खुर्रम हाडा चौहान का जीवन भर आभारी रहा और हाड़ा राजा ने भी इस दोस्ती को हमेशा कायम रखा। बूंदी नरेश राजा रतन सिंह का इसी बीच देहावसान हो गया।

    रतन सिंह के देहावसान के बाद बूंदी की गद्दी उनके बड़े बेटे गोपीनाथ के पुत्र छत्रसाल को मिली, लेकिन शाहजहां राव माधोसिंह को नहीं भूले। उन्होंने दोस्ती निभाई और विक्रम संवत 1688 में कोटा को स्वतंत्र राज्य घोषित कर राव माधो सिंह को सत्ता सौंप दी। बस यहीं शुरू हुआ हाड़ा चौहानों की दूसरी सबसे सशक्त रियासत कोटा का राज। शाहजहां ने ढ़ाई हजार सिपाही, डेढ़ हजार सवार का मनसब और पांच हजार की नकद के साथ राव माधोसिंह की ताजपोशी का इस्तकबाल किया था। राव माधोसिंह और शाहजहां की यह दोस्ती दिनों-दिन मजबूत होती गई। खानेजहां का  विद्रोह हो या फिर जुझार सिंह बुंदेला की बगावत। यहां तक कि मध्य एशियाई मोर्चों तक पर माधोसिंह शाहजहां के साथ खड़े हुए। माधोसिंह की वीरता का शाहजहां खास कायल था। विक्रम संवत 1705 में स्वतंत्र कोटा के पहले शासक महाराजा माधोसिंह का देहावसान हो गया।

    कोटा के क्षारबाग में पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया। माधोसिंह के पुत्र मुकुंद सिंह ने राज्याभिषेक के बाद अपने पिता की स्मृति में आलीशान छतरी का निर्माण कराया। भगवान शिव के अनन्य भक्त होने के कारण उनकी समाधी पर शिव प्रतिमा स्थापित की गई।
    यही कोटा के क्षारबाग की पहली छतरी थी। इसके बाद क्षारबाग कोटा राजवंश का शाही शमशान हो गया। कोटा नरेश माधोसिंह के बाद उनके पुत्र मुकुंद सिंह, जगत सिंह, प्रेम सिंह (कोयला), किशोर सिंह, राम सिंह, भीमसिंह, अर्जुन सिंह, दुर्जन सिंह, अजीत सिंह, शत्रुशाल, गुमान सिंह, उम्मेद सिंह, किशोर सिंह-2, राम सिंह-2, शत्रुशाल-2, और उम्मेद सिंह-2  समेत कोटा राजवंश के तकरीबन बीस लोगों की शाही समाधियां यहां स्थित हैं। हालांकि कोटा राज की नींव रखने वाले महाराजा माधोसिंह समेत तमाम छतरियों की दशा बेहद दयनीय है। संरक्षण के आभाव में सदियों पुरानी यह धरोहर मिटने की कगार पर पहुंच गई है।
    स्थापत्य कला
    क्षारबाग की छतरियां स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना हैं। कोटा जिस दौर में अपने वैभव को प्राप्त हुआ उस समय तक राजपूताने की कला ने अनूठा स्थान कायम कर लिया था। इसे कालांतर मे हिंदू स्थापत्य शैली भी कहा गया। इस शैली की प्रमुख विशेषता शिल्प सौष्ठव, सुदृढ़ता, अलंकृत पद्धति, सुरक्षा, उपयोगिता और विशालता के साथ-साथ विषयों की विविधता। हलांकि मुगलसत्ता के मिलाप का असर शिल्प पर भी पड़ा और बाद में हुए तमाम निर्माण तुर्की और मुगल प्रभाव के गहरे निशान देखने को मिले। यह छतरियां भी इस प्रभाव से अछूती न रह सकी। चित्रकला का विषय तो हिंदू सभ्यता के अनुरूप ही रहा, लेकिन शैली पर मुगलिया असर दिखने लगा। छतरियों पर लगे संगमरमर के पत्थरों पर बारीक कलाकारी कर उकेरे गए चित्र और प्रतिमाओं में बूंदी और मुगल शैली का पूरा समावेश मिलता है।
    समाधीस्थ शिव प्रतिमाओं पर शांत भाव से खड़ी 16 इंद्रियां। वक्त के थपेड़ों ने किया क्षतिग्रस्त।
     कोटा चित्रकला के नाम से विख्यात हुई इस शैली में स्त्री पात्रों के चित्र पुतलियों के रूप में, आंखें बड़ी, नाक छोटी, ललाट बड़ा, कलीदार लंहगे और अकड़ी हुई वेणी के चित्रों की शैली प्रमुख विशेषता है। इसके साथ ही  शिकार, युद्ध, उत्सव, श्रीनाथ कथा चित्रण और पशु-पक्षियों के चित्रण इन छतरियों को खास बना देते हैं। इन चित्रों में सबसे बड़ी बात राजा की मृत्यु से जुड़े युद्ध में उनके सबसे बड़े कौशल का चित्रण किया गया है। साथ ही उनकी विशेष महारत को शक्तिविशेष के पयार्य माने जाने वाले जानवरों की मूर्तियों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। वाकई में अदभुत कला बिखरी पड़ी है क्षारबाग में। बस जरूरत है उसके संरक्षण की, जिसका आभाव यहां साफ देखने को मिलता है। नतीजन तमाम ऐतिहासिक चित्र और प्रतिमाएं वक्त और असमाजिक तत्वों के थपेड़ों में अपना अस्तित्व खोते चले जा रहे हैं।
    क्षारबाग में भगवान गणेश की अदभुद प्रतिमा।

    हंस रथ पर सवार मां शारदा। प्रतिमा क्षतिग्रस्त होने लगी है।




    भगवान शिव की अनूठी प्रतिमा, जिसमें 16 ज्योतियों की उत्कृष्ठ प्रतिमाएं अलंकृत की गई हैं।


    भगवान कृष्ण की रासलीला का अनुपम दृश्य, नीचे घुड़सवार पर हमला करता महावत।

    भगवान राम के राज्याभिषेक की अनुपम कलाकृति जिसमें वह माता सीता को आशीष देते हुए दिख रहे हैं।
    भग्नावेशः- न राजे रहे न उनका राज। नतीजा अनुपम कला के प्रतीक शिव की प्रतिमा को ही कोई समाधी से उठा ले गया। 



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