नहीं...नहीं...साब...इलाके
में तो बस 24 फीसद खराबा हुआ है... हकलाता, हड़बड़ाता दिनेश सैनी यकीं दिलाने पर
अमादा था कि अन्नदाता की मौत इंद्र के प्रकोप से नहीं होती... वो तो खुद मरता है,
कभी जहर खाकर तो कभी जंतर-मंतर पर जाकर। गजेंद्र की बेवकूफी से झामरवाड़ बदनाम हो गया
साहब।
खराबा कैसे तय किया
तुमने?
नामुराद सवाल सुनते
ही बिफर गया देश का सबसे महान गणितज्ञ और किसानों का असल मसीहा... पटवारी। आप भी
कमाल करते हैं, गिरी हुई-खड़ी हुई फसलें हमें भी दिखती हैं... पैदाइशी किसान हैं
हम, इतना तो जानते हैं।
... तो मान लें कि
बाली में दाने पड़ गए थे...दूध दानों की शक्ल लेने लगा था... दाने खोखले नहीं हैं ? सवाली हमले के लिए वह कदापि तैयार नहीं था। सदमे
में आ गया और बस घूरता रहा... तब तक ... जब तक कि उसे खुद पर शर्म नहीं आने लगी।
दिनेश तो दूर की बात
इस देश का कोई भी पटवारी इन सवालों का जवाब नहीं दे सकता। बावजूद इसके इन पटवारियों
की बनाई हुई रिपोर्ट पर गांव के परधान पति से लेकर देश का प्रधानमंत्री तक आंख बंद
करके भरोसा करता है... कुछ ऐसा ही दस्तूर है इस मुल्क का। पटवारी अब चाहे दौसा
जिले के नांगल झामरवाड़ गांव का दिनेश सैनी हो या फिर मथुरा के मांट का लालाराम,
बरेली के नवाबगंज का चूड़ामल या फिर कूच बिहार के किसी बाढ़ प्रभावित गांव का अनाम
शख्स। सबकी नपाई और गला कटाई का तरीका एक है। भाग्यविधाताओं को कभी इस व्यवस्था की
समीक्षा की फुर्सत ही नहीं मिली। मिलती भी कैसे... रुदाली बनकर किसानों की मौत और
बर्बादी का मातम मनाकर ही तो उनकी घर-गृहस्थी चलती है... सत्ता सुख बरकरार रहता
है। भला पेट पर लात मारता ही कौन है... सिवाय अन्नदाता के।
नत्था की मौत का सबब
और सलीब तलाशने में पूरा देश जेम्स बांड बना हुआ है... लेकिन कभी किसी ने खेतिहार
बनने की कोशिश नहीं की...नेता और अफसरों की बात तो छोड़ो टीआरपी के खेल में शामिल मीडिया
तक से उम्मीद करना अब बेमानी है। साल भर पहले ही तो बेची थी ‘आत्मा’ । दूसरे बुलेटिन में रिपीट होने लायक हिट नहीं
मिले थे... ऐसी पिटी हुई खबरों को भला याद कैसे रखा जाए और वैसे भी फटेहाल किसान
की जेब से अरबों रुपये का फसली बीमा प्रीमियम हड़पने वाली कंपनियां खबर नहीं बन
सकतीं,,,बीमा कंपनियों से नहीं पूछा जा सकता कि आखिर वैज्ञानिक युग में फसली
नुकसान की भरपाई के लिए बाबा आदम के जमाने के पैरामीटर क्यों अपना रखे हैं... संसद
और आयोग की बात तो दूर कभी सड़क पर भी इस मुद्दे पर चर्चा नहीं होती। बीमा नियामक
आयोग क्यों चुप्पी साधे बैठा है... कभी दिल्ली के स्टूडियो में बैठी रुदालियों ने इसे
मुद्दा बनाकर अपनी फाड़ू रिपोर्ट क्यों फाइल नहीं की। आखिर करते भी कैसे
मार्केटिंग का मामला है... विज्ञापन नहीं तो वेतन नहीं कुछ ऐसी ही दलील दी जाती है
न्यूज रूम में.... बड़े-बड़े चैनलिया महारथियों के लिए रिसर्च करने में जुटी टीमों
को इन सबके बाबत फुर्सत ही कहां... कोई एप होता तो याद भी रखा जाता।
जनाब एप भी
है... एम किसान के नाम से... मौसम के हाल से लेकर खाद और बीज के बंदरबांट तक अन्नदाता
सबकुछ इसके जरिए पता कर सकता है और उसकी शिकायत भी दर्ज करा सकता है, लेकिन कभी
किसी सरकार ने इसका प्रचार प्रसार इसलिए नहीं किया कि कहीं सही नंबर डायल हो गया
तो राजनेता ई गोला से ऊ गोला पर फैंक न दिए जाएं। सरकारें बिजली का बिल माफ करने
की भीख किसानों को दे रही हैं... लेकिन मुफ्त मे सोलर पंप देने की योजना में आया
पैसा कई सालों से केंद्र को वापस लौट रहा है। चार लाख का ट्यूबवेल खुले में
लगाएंगे.... खेत से चोरी हो गया तो... एक बड़े आईएएस अफसर की आशंका थी यह। मेरी
गुस्ताखी यह रही कि मैने उनसे बस इतना पूछ लिया था... सर, वो परसों घर से कुत्ता
चोरी होनी की रिपोर्ट देखी थी कोतवाली में... मैडम ने विज्ञापन भी छपवाया था
प्यारे पम्मी की तलाश में... मिल गया क्या ? जनाब, गुनाह कर
दिया इतना पूछकर कहां किसान के खेत पर मुफ्त का सोलर ट्यूबेल और कहां कई जिलों के
हाकिम रहे साहब का दो लाख का जर्मन ब्रीड कुत्ता।
हकीकत यही है, जब तक
अन्नदाता भीख मांगता रहेगा तब तक ये रुदालियां उसे भीख में कभी बिजली बिल की मांफी
तो कभी केसीसी और कर्ज पर ब्याज की मांफी के टुकड़े फैंकती रहेंगी और बदले में
होती रहेगी जुर्रत अन्नदाता के गले में बंधुआ मजदूरी का पट्टा डालने की। मेंढ और
नाली के बीच में फंसी मूंछ की लड़ाई को खत्म करना किसानों की पहली जरूरत है। आपसी
विवादों को गांव में सुलटा कर संगठित होना होगा। खेती के परंपरागत तरीकों में
बदलाव लाना होगा। ऐसा नहीं कि लाखों खर्च करने के बाद ही खेती होती है... मुफ्त
में भी खेती की जा सकती है...ऑर्गेनिक फॉर्मिंग के जरिए। अन्नदाता के जुमले से
बाहर निकलकर व्यवसाई बनना होगा... कृषि व्यवसाई। अपने माल की गुणवत्ता खुद तय करनी
होगी और कीमत भी लगानी होगी। चार साल नहीं गुजरेंगे कि चार सौ गुना मुनाफा तय है
और हां... इसके साथ ही समझनी होगी अपनी वोट की कीमत। गजेंद्र की तरह फांसी लगाने
से काम नही चलेगा... वोट का फंदा बनाकर इन रुदालियों के गले में डालना पडेगा...
तभी मौसमी मातमपुरसी खत्म होगी। नहीं तो हर फसल के बाद... ये रुदालियां हमारे आंगन
में बैठी फिर किसी अपने की मौत पर छाती पीटती नजर आएंगी।
गालिब की गुस्ताखी
के साथ उम्मीद भरी राम-राम:-
एक ब्रहामण ने कहा
है कि ये साल अच्छा है
जुल्म की रात बहुत जल्दी
ढलेगी अब तो
आग हर रोज चूल्हों
में जलेगी अब तो
भूख के मारे कोई
बच्चा नहीं रोएगा
चैन की नींद हर एक
शख्स यहां सोएगा
आंधी नफरत की ना
कहीं चलेगी अबके बसर
है यकीं अब न कोई
शोर शराबा होगा
जुल्म होगा न कहीं
खून खराबा होगा
ओस और धूप के सदमे न
सहेगा कोई
अब मेरे देश में
बेघर ना रहेगा कोई
नए वादों का जो डाला
है वो जाल अच्छा है
रहनुमाओं ने कहा है
कि ये साल अच्छा है
दिल को खुश रखने के
लिए
गालिब ये ख्याल अच्छा है
दिल को खुश रखने के
लिए
गालिब ये ख्याल अच्छा है।
वाह!
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