गांधी और अम्बेडकर ... इंसान होते हुए भी वो कर गये जिसके पास तो क्या दूर दूर तक कोई दूसरा नजर नहीं आ रहा... इसे भारतीय समाज की चिंतन हीनता कहें या अवसरवादिता ... दौनों की याद वोट वैंक बढ़ाने के लिए आती है...लोगों की दिशा और दशा सुधारने के लिए नहीं ... नहीं तो स्कूलों की संख्या मैखानों से ज्यादा होती... अम्बेडकर ने आरक्षण मांगा था दबे कुचले लोगों को मजबूत बनाने के लिए ... लेकिन वोट बैंक की राजनीति ने आरक्षण को इतना विकृत कर दिया कि दबे कुचले लोग तो मजबूत नहीं बन पाये लेकिन छुटभइ्यों की राजनीति चमक गयी... जिनके दम पर सत्ता का सुख चचा उन्हें बना दिया विकलांग.... आरक्षण की बैसाखी पकड़ा कर... हो सकता है आप कहें कि में कथित सवर्ण परिवार से संबध रखता हूं ... इसलिए आरक्षण का मखौल उड़ा रहा हूं... कथित इसलिए कि आजादी की जंग में इस परिवार ने इतना कुछ गंवाया कि दो पीड़ियों तक रोटी पर नमक मिर्च लगा कर वक्त काटा.. लेकिन रहे फिर भी सवर्ण.... मेरा मानना है कि गांधी हों या अम्बेडकर उनकी आत्मा को तब तक शान्ती नहीं मिलेगी जबतक ... हर बच्चे को स्कूल नसीब नहीं होगा... हर एक कामगार को काम नहीं मिलेगा.... जब तक कोई बेघर नहीं रहेगा... दौनों की लड़ाई और मंशा तो शायद यही थी... न कि नये शासक बनाने की .... मूर्ति पूजकों के इस देश में व्यक्ति की पूजा तो की जाती है लेकिन विचारों का अचार डाल डिब्बे में बंद कर दिया जाता है....
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