तन्हाई क्या क्या गुल नहीं खिलाती ... तन्हाई में इंसान को बुद्धी आ जाये तो बुद्ध बन जाता है ... और कहीं कोई खुराफात सूझ जाये तो खतरनाक हो जाता है ... चार दिन से मेरा एक दोस्त भी तन्हा है... अच्छा भला छोड़कर गया था उसे ... जब लौटा तो वो नहीं मिला जिससे मिलने की उम्मीद थी... अब वो बेरहम तन्हाई का शिकार हो गया है.... कभी धूनी रमाये बाबा बनने की बात करता है... तो कभी कोठरी में बैठा अपनी प्रियसी का काजल चुराना चाहता है... कभी जवां मर्द बन दुनियां को जीतने का दम भरता है.... तो अगले ही पल जुए में हारे हुए जुआरी की तरह लुटी पिटी जिंदगी का खेल खत्म करने का इरादा जताता है... जब दर्द बांटना चाहो तो बेदर्द दुनियां का राग अलापता है लेकिन मुद्दे की बात हवा में उड़ा जाता है.... कभी उसको उसकी डिग्रियां मुंह चिढ़ाती हैं तो कभी यही डिग्रियां उसे नयी जिंदगी की राह दिखाती नजर आती हैं.... एक बार तो लगा कि ये प्रेम रोग का शिकार हो गया .... लेकिन अगले ही पल लगा कि नहीं शायद ये समाज सेवा के कीड़े के काटने का दंश है.... बहरहाल उसकी मानसिक स्थिति इस वक्त चौराहे पर टंगे उस मार्गदर्शक जैसी हो गयी है जिस पर ये तो लिखा है कि यहां से किस किस जगह जाया जा सकता हैं ... लेकिन उस जगह जाने के लिए कौन सा रास्ता जाता है यह नदारद है.... नीरस जीवन की कल्पना में वो कस्बे का कहार तो बनना चाहता है ... लेकिन रस घोलने में उसे दुस्साहस नजर आता है .... साहस तो है लेकिन सहारे के बिना मिलता नजर नहीं आता... अजीब-ओ-गरीब दोराहे का शिकार है वो फिलहाल ... तन्हाई का असर कहूं या तन्हाई का आसरा... खुद से मिलना तो चाहंता है ... लेकिन पता जमाने से पूछ रहा है .... वाह री तन्हाई ... क्यों तू उसके जीवन में आयी... कुछ कर पायी या न कर पायी .... मेरे दोस्त की हो गयी खुद से ही जुदाई... वाह री तन्हाई....
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