मेरे इश्क की किताब का हर एक हर्फ़ है अधूरा… इस किताब की हर कहानी है अधूरी ..चांहता तो मैं भी था इसे करना पूरा ... लेकिन अब पता चला नहीं होती हर चांहत पूरी... हर बार मैं हारा यही सोच कर ... हर हार से निकलता है जीत का रास्ता... लेकिन मैं हारता ही रहा ... कभी इश्क के लिए तो कभी आशिक के लिए... कभी खुद के लिए तो कभी खुदा के लिए.... लेकिन अब पता चला नहीं होती हर हार पूरी ... कहीं सुना था नहीं मिलता किसी को मुकम्मल जहां... मगर मुकम्मल है हर आशिकी मेरी... हर रोज कहीं दूर कहीं से आती है एक सदा... तुम हो पूरे तुम्हारी आशिकी है पूरी ... मंजिलें बसा रखीं हैं बस तुमने दूर ... सो तुमको करनी है तय लम्बी दूरी.... जिश्म तलक जाना तो हर किसी को आता है... रूह तलक तय की दूरी तुमने... देर सही अंधेर सही ... कुहासा कितना भी घनघोर सही... तुम्हारी मंजिल है सही ....तुम्हारा हर एतबार सही... चाहे कितने हर्फ़ हों अधूरे ... चाहें कितने जख्म हो गहरे ... रूह को जीतने में मिली गर ऐसी हार सही ... क्यों न हो बार बार सही...
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