जितना हो सके अपने स्थानीय दुकानदार से ही सामान खरीदें…. बड़े स्टोर्स पर बिल्कुल भी निर्भर न रहेः- बराक ओबामा, राष्ट्रपति अमेरिका
सोशल नेटवर्किंग साइट ट्विटर पर यही ट्विट किया था अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने .... अमेरिकी मीडिया ने जब इसकी वजह जाननी चांही तो ओबामा ने बिना लाग लपेट के कह दिया था कि वॉलमार्ट सरीखे बड़े स्टोर्स लोगों से न सिर्फ रोजगार छीन रहे हैं बल्कि अर्थ व्यवस्था को भी चोट पहुंचा रहे हैं। आम आदमी की आत्म निर्भरता तो खत्म हो ही रही है सो अलग।
खुदरा बाजार में छोटी मछलियों को बड़ी मछलियों का शिकार बनने से रोकने के लिए जिस साफगोई से ओबामा मैदान में उतरे, भारत की सरकार उतने ही संशय और लालच के साथ उसके समर्थन में खड़ी हो गयी है।
खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी निवेश की कोशिशें नई नहीं हैं लेकिन जिस तरह से इस बार बहु उत्पादों में 51 फीसदी और एकल उत्पाद में 100 फीसदी निवेश को मंजूरी दी गयी है उसे लेकर तमाम तरह से सवाल उठना लाजमी। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर देश में माहौल बनाये बिना उदारीकरण के सबसे भयावह पहलू को जनता पर क्यों थोपा गया। दूसरा सवाल उठता है विदेशी निवेश को मंजूर करने की टाइमिंग पर और उससे भी बड़ा सवाल यह कि जिस जनता के वोट से चुनकर कांग्रेस सरकार में पहुंची उस जनता से एक एफडीआई लागू करने से पहले एक बार भी मशविरा क्यों नहीं किया गया। जनाब पहले का तो छोड़िये बाद में संसद में इस मुद्दे पर बहस कराने से भी सरकार बचने की भरकस कोशिश करती नजर आ रही है।
खैर, राजनीतिक मुद्दों को नफा-नुकसान की राजनीति मानकर उन पर बाद में चर्चा की जा सकती है लेकिन भारतीय खुदरा बाजार और उसमें विदेशी निवेश की स्थिति के साथ-साथ संभावित परिणामों पर पर गहन अध्ययन करना फिलहाल बेहद जरूरी है।
हाल ही में दुनिया भर में जब मंदी का आतंक छाया हुआ था तब भी भारतीय बाजार और जनता का अधिकांश हिस्सा इससे बेखौफ था.... सबसे बड़ा कारण विदेशी मंदी से उसकी रसोई और रोजी पर असर न पड़ना था... यह इसलिए हुआ क्योंकि देश की 90 फीसदी जनता की रोजी-रोटी विदेशी बाजार पर निर्भर नहीं थी।
भारत में खुदरा बाजार का कुछ 61 फीसदी हिस्सा खाद्य उत्पादों जैसे- चाय,कॉफी, दाल-चावल, आटा दूध, अंडे, फल-सब्जी आदि का है। सिर्फ यही बाजार करीब 11,000 करोड़ रुपये सालाना का बैठता है और इस कारोबार पर किसी एक धनपशु का नहीं बल्कि जनता का राज चलता है, मतलब कि गली मुहल्लों में खुले किराना स्टोर्स या जरनल मर्चेंट।
सरकारी आंकड़ों की ही बात करें तो नाबार्ड के ताजा सर्वेक्षण में पाया गया कि महानगरों में करीब 68 फीसदी अनाज, दाल-मसाले और करीब 90 फीसदी फल-सब्जी, दूध-अंडे-मीट अपने मोहल्ले की छोटी दुकानों से खरीदे जाते हैं।
दूसरे दर्जे के शहरों में यह हिस्सेदारी और बढ़ जाती है। इन शहरों में अनाज-मसालों में 80 फीसदी और फल-सब्जी, दूध अंडे में 98 फीसदी तक जनता अपने पडौस की दुकान पर ही निर्भर है। ऐसा नहीं है कि इन शहरों में बडे रिटेल स्टोर्स नहीं हैं, उनकी मौजूदगी तो है लेकिन वह आम आदमी के बीच जगह नहीं बना पाये हैं। इन शहरों में संगठित खुदरा बाजार का हिस्सा केवल दो फीसदी है और वह भी उन लोगों के बीच जिनके पास समय का घोर आभाव है या फिर उन्हें उनके संस्थानों द्वारा इन स्टोर्स पर खरीदारी के प्रोत्साहित किया जाता है।
जब नावार्ड ने इसकी वजह तलाशी तो कई चौंकाने वाली चीजें सामने आयीं। पहला तो निकटता इसकी मूल वजह रही। असंगठित क्षेत्र की यह दुकानें क्रेता के घर से अधिकतम 200 मीटर की दूरी पर थीं वहीं संगठित क्षेत्र के स्टोर कम से कम तीन किलोमीटर दूर। दूसरी वजह दुकानदार द्वारा पैसे न होने पर भी परिचय के आधार पर सामान उपलब्ध कराना या फिर बिका हुआ सामान शिकायत या जरूरत के हिसाब से अक्सर बदल लेना। इस तरह की कोई भी सुविधा संगठित क्षेत्र के किसी भी स्टोर्स पर अभी तक उपलब्ध नहीं है।
यदि रोजगार की बात की जाये तो असंगठित क्षेत्र के इस बाजार का सही आंकड़ा अभी तक किसी भी निजी या सरकारी एजेंसी के पास मौजूद नहीं है और हो भी नहीं सकता क्योंकि जब आम आदमी थक-हारकर बैठ जाता है और उसे कोई रोजगार नहीं मिलता तो वह छोटी सी दुकान खोल लेता है जिससे उससे परिवार का जीवन यापन होता है। जो आंकड़े उपलब्ध हैं उनके मुताबिक प्रत्येक 200 लोगों पर ऐसी एक दुकान भारतीय शहरो और गांवों में चल रही है। अकेले उन 35शहरों में जिनमें बड़े विदेशी रिटेल स्टोर्स खोलने की बाच चल रही है, उन्हीं में छोटी दुकानों का आंकड़ा 1.5 करोड़ के करीब का बैठता है जिनसे 12 करोड़ से भी ज्यादा लोगों को रोजगार मिल रहा है। अब यदि वूलमार्ट या दूसरी कोई रिटेल कम्पनी रोजगार देगी भी तो कितने लोगों लाख-दस लाख लेकिन सरकारी आंकड़ों पर ही विश्वास करें तो आसानी से समझा जा सकता है कि कितने लोगों के हाथ से रोजी-रोटी छिनेगी।
ऐसा नहीं है कि भारत में संगठित खुदरा बाजार की कहानी नई है। यह करीब एक दशक का सफर तय कर चुकी है। नाबार्ड की ही रिपोर्ट पर यकींन करें तो यह बाजार भी 855 अरब रुपये का है। जिसमें 2000 फीट के सुभिक्षा मॉडल जैसे स्टोर्स से लेकर 25000 फीट तक के मल्टी ब्रॉड हाइपरमार्केट स्टोर्स जैसे- बिग बाजार, स्पेंसर और ईजी डे तक शामिल हैं। लेकिन इससे ज्यादा चौंकाने वाला तथ्य यह है कि बीते एक दशक में यह रिटेलचैन केवल कुल बाजार का पांच फीसदी हिस्सा ही कब्जा सकीं हैं।
इन तथ्यों से बाजार के हालातों को समझा जा सकता है कि विदेशी पूंजी निवेश बेवजह नहीं बूलमार्ट जैसी बड़ी विदेशी कम्पनियों दे दवाब में लिया गया फैसला है जिनकी नजर टिकी है अरबों रुपये के इस कारोबार पर। इसका प्रमाण अमेरिकी सीनेट की 2007 की रिपोर्ट से मिलता है कि वूलमार्ट ने भारतीय बाजार में कदम रखने के लिए अमेरिकी सीनेटर पर लॉबिंग के लिए 60 करोड़ रुपये से भी ज्यादा खर्चे थे। वहीं इसी रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र है कि भारत में उससे कहीं ज्यादा करीब 70 करोड़ लॉबिंग के लिए खर्च किये गये। यह तो वह धन था जो प्रत्यक्ष रूप से खर्च किया गया था जिसमें मीडिया को प्रचार-प्रसार करने के लिए दिये गये विज्ञापन, सेमिनार-गोष्टियां और राजनेताओं के साथ की गयी समन्वय बैठकें शामिल थीं। लेकिन जिस तरह से सरकार ने एक तरफा फैसला लिया उससे शंका होती है कि कहीं अमेरिका के सीनेटरों को लॉबिंग के लिए जिस तरह सीधे नगद भुगतान किया था कहीं भारतीय राजनेताओं को भी कहीं उपकृत न किया गया हो।
यदि ऐसा नहीं होता तो संगठित खुदरा बाजार के पक्ष में सरकार निहायत बेवकूफाना तर्क न देती। सरकार का पहला तर्क है कि इस क्षेत्र में विदेशी निवेश आने से रोजगार के नये अवसर पैदा होंगे लेकिन सरकार ने यह नहीं बताया कि जो अवसर खत्म होंगे उनकी भरपाई कैसे होगी। दूसरा तर्क किसानों और छोटे उत्पादकों को लाभ मिलेगा। इसका तरीका भी सरकार बताती है कि इस व्यवस्था से बिचौलियों का खात्मा हो जायेगा और किसान या छोटे उत्पादक अपना माल मंडियों में लेजाकर बिचौलियों के हाथ बेचने के बजाय सीधे वॉलमार्ट जैसे बड़े विदेशी खरीदारों को बेच सकेंगे इससे उन्हें माल का अच्छा दाम भी मिलेगा और समय पर खपत भी हो जायेगी। इस विषय में दो बड़े सवाल अनुत्तरित ही रहते हैं पहला यह कि मंडियों की व्यवस्था क्या सरकार ने नहीं की और यदि की है तो बिचौलियों को आश्रय किसने दिया। यदि सरकार ने नहीं दिया तो अब तक उन्हें वहां से खदेड़ा क्यों नहीं गया। जब सरकार इस तरह के बिचौलियों को नहीं खदेड़ सकी तो इस बात की क्या गारंटी है कि वह किसानों के बी और सी ग्रेड माल को उन बड़े भेड़ियों को खरीदने के लिए मजबूर कर सकेगी और जब दस साल बाद इन विदेशी कम्पनियों का पूरी व्यवस्था पर कब्जा होगा तब सरकार कैसे इन्हें फसल या उत्पाद के मनमाने दाम तय करने से रोक सकेगी। सच्चाई तो यह है कि अकेले इंग्लेंड में ही वॉल मार्ट का जब से कब्जा हुआ है वहां के किसानों को खुले बाजार से 4 फीसदी कम दाम दे रहा है तो फिर भारत में ज्यादा कैसे दे सकता है। अमेरिका की बात करें तो वहां सालाना 307 बिलियन एग्री सब्सिडी देनी पड़ रही है सरकार को। यदि कुछ बदलना ही था तो अमरीका में क्यों नहीं बदला, वहां के किसान अभी तक क्यों आत्म निर्भर नहीं बन सके जबकि उनके पास तो वॉलमार्ट था।
दूसरा तर्क इन विदेशी कम्पनियों के आने से जनता को रोजमर्रा की चीजें सस्ते दामों पर मिलेंगी जिससे मंहगाई पर नियंत्रण हो सकेगा। क्या इसका मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि बीते पांच साल में जिस तरह से सरकार ने बढ़ती मंहगाई को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है वह इन कम्पनियों के पक्ष में माहोल बनाने की पूर्व निर्धारित रणनीति थी। या फिर वस्तुओं के मूल्य निर्धारित करने में सरकारी तंत्र असफल हुआ है। भला जो तंत्र देशी कम्पनियों के हितों के आगे घुटने टेक सकता है वह विदेशी माया जाल के मोहपास से कैसे छुटकारा पायेगा।
सवाल कई हैं, जवाब सरकार को देने ही होंगे। पहले बाजार के हाल पर ही स्थिति स्पष्ट कर दें राजनीति नफा-नुकसान पर तो चर्चा बाद का विषय है। यदि सरकार जनता के विरोध को अनसुना कर अपने फैसले उस पर थोपना चाहती है तो एक और सवाल उठता है.... कि भला वॉलमार्ट के लिए लॉबिंग करने वाले उसी परम्परा के ध्वज वाहक कैसे हो सकते हैं जिन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी का बोरिया बिस्तर बांधने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था..... क्या है इस सवाल का कोई जवाब .... सरकार और कांग्रेस के पास ...........
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