ग्रीस जैसी सरकारों के कारण बर्बाद होती बैंक हों या फिर बैंकों के कारण बर्बाद होती आयरलेंड या अमेरिका जैसी सरकारें, वित्तीय व्यवस्था की यह करिश्माई संस्था हमेशा संकट के शूत्रधारों में शामिल रही है।
किसी भी देश की अर्थ व्यवस्था में वहां के बैंकों का अहम योगदान होता है क्योंकि यही वह संस्था है जिससे न सिर्फ छोटे से लेकर बड़े उद्यमियों की आर्थिक जरूरतें पूरी होती हैं बल्कि आम जनमानस किसी न किसी रूप में यहां पूंजी निवेश कर खुद को बेहद सुरक्षित महसूस करता है। बैंकिंग प्रणाली का यह रुपहला अंदाज बेहद आकर्षक है लेकिन जब किसी बैंक की तबियत बिगड़ती है तो न सिर्फ आम पूंजी निवेशक के माथे पर बल पड़ जाता है बल्कि देश की अर्थ व्यवस्था के लिए भी यह स्थिति बेहद चिंताजनक होती है।
अमेरिका के सबसे बड़े बैंक लेहमन ब्रदर्स के डूबने पर दुनियां भर में जो हाहाकर मचा था उसे भला कैसे भूला जा सकता था। सिर्फ एक बैंक की माली हालत खराब हुई तो न सिर्फ अमेरिका बल्कि विश्व अर्थ व्यवस्था में फिर से मंदी के काले बादल छाने लगे थे। एक लम्बा अरसा बीत जाने के बाद भी लेहमन प्रभाव से विश्व बाजार अभी तक बाहर नहीं निकल सका है, रही बात अमेरिका की तो दुनिया के सबसे बडी आर्थिक विरासत लाख प्रयत्न करने के बावजूद कंगाली को टाल नहीं पा रही है। यकीनन बैंकों का मामला बेहद संगीन होता है।
अमेरिकी या यूरोपियन बैंकों की ही बात क्यों की जाये भारतीय बैंकों ने भी जोखिम का ढेर सारा बारूद अपने इर्द-गिर्द जुटा रखा है, बस पलीते का इंतजार है। भारतीय बैंकिंग में शायद यह पहला मौका है जब दिनों-दिन गिरती औद्योगिक ग्रोथ, रसातल में जाता रुपया और मंहगाई के चलते फंसते कर्ज से लेकर घटते रिटर्न ऐसे जाग्रत ज्वाला मुखी बन कर उभरे हैं कि यदि इनमें विस्फोट हुआ तो न सिर्फ बैंक तबाह होंगे बल्कि देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा जायेगी। भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि यहां अधिकांश बैंक सरकारी हैं और इन बैंकों को अपनी जिस पूंजी के डूबने का डर सता रहा है वह भी सरकारी या अर्ध सरकारी योजनाओं को ही कर्ज के रूप में दी गयी है।
बैंकिंग क्षेत्र के लिए यह खतरे की घंटी हाल ही में मूडीज के रेटिंग घटाने के बाद बजी। वैसे मूडीज ने यह रेटिंग यूं ही नहीं घटाई। इसकी सबसे बड़ी वजह बैंकों का गिरता एनपीए (अन उत्पादक खाते) है। बैंकों के पास ऐसे तमाम सरकारी और कॉर्पोरेट कर्जदार हैं जिन्हें बिगड़ते वैश्विक आर्थिक माहौल में कर्ज चुकाने में दिक्कतें आ रही हैं। इसी के चलते पिछली तिमाही में देश के सबसे बड़े सरकारी बैंक भारतीय स्टेट बैंक का न सिर्फ मुनाफा 12 फीसदी गिरा बल्कि एनपीए में भी दो फीसदी की बढ़त दर्ज की गयी। सितम्बर के अंत तक देश के सभी 37 सूचीबद्ध बैंकों के एनपीए में 32 फीसदी तक की बढ़त दर्ज की गयी।
ऐसा नहीं कि फंसे कर्ज की बीमारी सिर्फ सरकारी बैंकों को ही लगी हो इसका शिकार देश के निजी बैंक भी हो चुके हैं। आईडीबीआई कैपिटल की ताजा रिपोर्ट बताती है कि इस वित्त वर्ष की पहली छमाही में विभिन्न बैंकों में 345 अरब रुपये के कॉर्पोरेट कर्जों का भुगतान टालने (सीडीआर) की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। पिछले साल यह आंकड़ा महज 51 अरब रुपये का था। इससे देना बैंक, यूको बैंक और इंडियन बैंक की माली हालत को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचना है। यदि केयर की रिपोर्ट पर यकीन किया जाये तो विमानन, माइक्रोफाइनेंस, अचल समप्ति और बिजली कम्पनियां सबसे ज्यादा मुश्किल में हैं। यदि इनके कर्जों का पुनर्गठन कर भी दिया जाता है तब भी 15 फीसदी कर्ज बैंकों मिलते नहीं दिख रहे।
मंदी की मार का दंश झेलना भले ही मजबूरी हो सकता है लेकिन उन सरकारी या अर्ध सरकारी संस्थानों के बारे में क्या कहा जाये जो लगातार सरकार से आर्थिक लाभ उठाने के बावजूद हमेशा घाटा ही दिखाते हैं। घाटे के इन संस्थानों में सबसे ऊपर आते हैं बिजली बोर्ड। रिजर्व बैंक द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक राज्य बिजली बोर्डों पर सरकारी बैंकों का कर्ज बीती जून में 2,92,342 करोड़ रुपये से ऊपर निकल गया था। इतने बड़े घाटे को देखकर आधा दर्जन से अधिक बैंकों की जान सूख रही है। वहीं नवम्बर की शुरूआत होते-होते इलाहबाद बैंक ने बिजली बोर्डों को और कर्ज न देने का साफ ऐलान ही कर दिया। अब बिजली बोर्डों के डिफाल्टर होने का खतरा बेहद पुख्ता होता जा रहा है इसलिए बैंकों ने इस बकाये का पुनर्गठन यानि वसूली टालने की कार्रवाई शुरू कर दी है। पंजाब नेशनल बैंक ने पिछली तिमाही में तमिलनाडु बिजली बोर्ड के करीब 1,800 करोड़ रुपये के कर्ज का पुनर्गठन किया था।
बैंकों की स्थिति पर वित्त मंत्रालय की ही रिपोर्ट बताती है कि बिजली के झटके सबसे ज्यादा पंजाब नेशनल बैंक, इलाहबाद बैंक, ओरियंटल बैंक, यूको बैंक और सेंट्रल बैंक सहित करीब छह सरकारी बैंकों को सबसे ज्यादा लग रहे हैं। बिजली बोर्डों को अकले पंजाब नेशनल बैंक ने अपने कुल देय का सात फीसदी और इलाहबाद बैंक ने 13 फीसदी का हिस्सा दे रखा है। इसी रिपोर्ट के मुताबिक मार्च 2009 से लेकर मार्च 2011 के बीच बुनियादी ढ़ांचा क्षेत्रों को बैंक कर्ज में अकेले बिजली क्षेत्र का हिस्सा 42 फीसदी के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच चुका है। इस हैरतंगेज तरीके से बांटे गये कर्ज पर बैंकों को सबसे ज्यादा चिंता तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, बिहार और हरियाणा के बिजली बोर्डों को लेकर है।
बकौल रेटिंग एजेंसी क्रिसिल भारतीय बैंकें बेहद खतरनाक मोड़ पर खड़ी हैं क्योंकि इन्हें सरकारी एवं अर्ध सरकारी क्षेत्र ही नहीं बड़े कॉर्पोरेट हाउसों को दिये गये लोन पटते नहीं दिख रहे इसके पीछे सबसे बड़ी वजह अगले तीन सालों में लगातार बड़े राज्यों और देश में होने वाले चुनाव हैं। इसलिए सरकारें कर्ज की उगाही से ज्यादा लोन माफ करने की अपनी लोकलुभावनी या यूं कहें कि अर्थ व्यवस्था डुवाबनी कर्ज माफी घोषणाएं करेंगे। जिससे न सिर्फ बिजली बोर्डों की बेलेंस सीट रसातल में जायेगी बल्कि बैंकों को भी धक्के खाने होंगे।
ताजा फाइनेंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट पर नजर डालें तो बैंकों के लिए मंदी की मार और बिजली के झटके ही नहीं कांपती जमीन भी किसी बड़ी सुनामी के संकेत दे रही है। इर रिपोर्ट के मुताबित अचल सम्पत्तियों पर फंसे हुए कर्ज बढ़ने की रफ्तार 20 फीसदी से ज्यादा बढ़ती जा रही है। कॉमर्शियल प्रापर्टी में एनपीए 71 फीसदी की गति से बढ़ रहे हैं। देश की सबसे बड़ी रियल स्टेट कम्पनी डीएलएफ, यूनिटेक और एचडीआईएल जैसे प्रमुख संस्थान गले तक कर्ज में डूबे हैं। रिजर्व बैंक के आंकड़ों पर यकीन करें तो रियल स्टेट कारोबारी 1.22 लाख करोड़ रुपये का कर्ज दबाये बैठे हैं। अकेले डीएलएफ का कर्ज पिछली तिमाही में 1000 करोड़ रपये से बढ़कर 22,000 करोड़ रुपये की सीमा को लांघ चुका है। वहीं कम्पनी की बेलेंस सीट बताती है कि उसका मुनाफा 11 फीसदी गिरा है। लेकिन इसे हमारी आर्थिक नीतियों का दोष कहें या लाभ की राजनितिक लालसा इतने बड़े कर्ज के बावजूद रिजर्व बैंक के सारे नियम कानूनों को ताक पर रखकर डीएलएफ को देश के नामी सरकारी बैंकों ने फिर से नया कर्ज देने में देर नहीं लगाई।
इतनी पतली हालत के बावजूद यदि सरकार की चली तो जमा ब्याद दर बढ़ाने का उसका इरादा बैंकों के लिए बेहद जोखिम भरा होगा। फिलहाल देश की पूरी बैंकिग प्रणाली में कुल जमा का आकार 14.46 खरब रुपये का है यदि ब्याज दर एक फीसदी भी बढ़ती है तो जमा पर बैंक को 14,000 करोड़ रुपये अतरिक्त देना होगा। कुल मिलाकर देश के आधे से भी ज्यादा बैंक गंभीर खतरे में फंसे हुए हैं जिनमें ज्यादातर सरकार द्वारा नियंत्रित हैं। यदि हालात यही रहे तो निश्चित ही सरकार को अगले छह महीनों में बैंकों के लिए अमेरिका के लेहमन ब्रदर्स की तरह बेलआउट पैकेज की घोषणा करनी पड़ेगी।
वरिष्ठ अर्थशास्त्री रमेश जैन बैंकों की इस हालात के लिए देश में चल रही घाटे की अर्थव्यवस्था के मॉडल को जिम्मेदार मानते हैं। उनके मुताबिक घाटे की अर्थ व्यवस्था का सबसे बड़ा घाटा यह है कि पैसा जुटाने के लिए दिखाये जाने वाले घाटे के चक्कर में असल मुनाफा तो लुप्त हो ही जाता है वहीं भ्रष्टाचार के चलते बढ़ने वाला घाटा व्यवस्था का हिस्सा बन जाता है।
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