अध्यक्ष, भारतीय प्रेस परिषद,भारतसरकार
मान्यवर,
न्याय का परचम लहराते हुए आप प्रेस परिषद के अध्यक्ष पद
तक पहुंचे, यह आपकी व्यक्तिगत उपलब्घि है। राजनीतिक नियुक्ति नहीं है।
सरकार को आपकी गैर-समझौतावादी प्रकृति की जरूरत यहां अघिक लगी, यह
विवेकपूर्ण निर्णय लोकतंत्र के भविष्य को सुरक्षित करने का ही प्रयास कहा
जाएगा। प्रेस परिषद का अध्यक्ष पद संभालने के बाद उससे जुड़े मुद्दों पर
आपके विचार निरंतर पढ़ने को मिल रहे हैं। आपने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र
में बड़े बिन्दुओं का जिक्र भी किया है।
आज जिस तरह मीडिया काम कर रहा है, उस दृष्टि से यह पत्र
सरकार की आंखें खोलने वाला साबित होगा। सरकार कुछ तो सीख लेगी। आपको बधाई!
खेद इतना ही है कि, अब तक परिषद ज्यादा कुछ नहीं कर पाई। केवल फाइलों का
पेट ही भर पाई। उसके देखते-देखते ही तो मीडिया आज व्यापार बन गया। तब क्या
यह लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाने योग्य रह गया है! वैसे भी, संविधान में
तो केवल तीन ही स्तंभ वर्णित हैं।
अत: आपका यह कदम इस दृष्टि से साधुवाद का पात्र है। प्रेस
ने स्वयं-भू चौथे स्तंभ का मुखौटा पहनने का जो दु:साहस किया और जिस प्रकार
विभिन्न सरकारों ने प्रेस (तथा आज टीवी भी) को खरीदने का कारोबार शुरू
करके लोकतंत्र की खरीद-बेच की बोलियां लगाई, इससे देश शर्मसार हो गया। भले
सौ में से दस कार्य अच्छे किए होंगे, किन्तु लोकतंत्र को कलुषित करने में
कोई कसर नहीं छोड़ी। यह सारे सुनहरे पृष्ठ आपको अपने कार्यालय में ही पढ़ने
को मिलेंगे भी। यही आपके कार्यकाल को सर्वाघिक चुनौती भी देंगे।
आज प्रेस भी वैसा नहीं रहा, जैसा कि आजादी की लड़ाई में
था। नेताओं, अघिकारियों की तरह वह भी जनता से दूर हो गया। भू-माफिया, शराब
माफिया की तरह प्रेस भी विज्ञापनदाता को ब्लैकमेल करने लग गया। टीवी चैनलों
ने इस मामले में कई दिग्गजों की हालत बिगाड़ रखी है। लगभग सभी प्रदेशों के
मुख्यमंत्री इनके दबाव की झांकी प्रस्तुत करने की स्थिति में होंगे।
पिछले चुनावों में तो इन्होंने अलग ही रिकार्ड बना डाला।
आपने टीवी को भी परिषद के दायरे में लाने और प्रेस परिषद को मीडिया परिषद
बनाने की बातें कहीं हैं, यह प्रशंसनीय एवं स्वागतयोग्य चिंतन है। मान्यवर,
इतना ही काफी नहीं होगा। यह एक पक्ष है। आपको इस पर भी निगाह रखनी होगी
कि, कोई सरकार मीडिया के साथ क्या गलत कर रही है। आपने प्रेस परिषद को
मीडिया का लाइसेंस रद्द करने और विज्ञापन बंद करने का अघिकार देने की मांग
की है लेकिन उस स्थिति का कोई जिक्र नहीं किया जिसमें सरकारें मनमाने तरीके
से अखबारों के विज्ञापन बंद कर दें।
प्रेस परिषद को सूचित करने की जरूरत तक नहीं समझें। तब
परिषद की सार्थकता क्या रह जाती है? मैंने तो अपने कार्यकाल में कई बार
सरकारी विज्ञापन बन्द होते देखें हैं। आज भी देख रहा हूं। हां, प्रेस परिषद
नहीं देख पाता। उसे दिखाना पड़ता है। उसके पास जानकारियां नहीं होती। क्या
परिषद के पास सूचनाएं प्राप्त करने का स्वतंत्र तंत्र नहीं होना चाहिए? जो
स्थिति प्रेस की है, उसका एक कारण परिषद् की भूमिका भी है। कोई भी सरकार
ऎसी संस्थाओं को यह ताकत देना भी नहीं चाहती। परिषद् बिना अघिकारों के
सजावटी भूमिका में बैठी है। कितनी भी जांचें करवा लें और रिपोर्टे जारी कर
दें, कोई प्रभाव तो पड़ने वाला नहीं है।
प्रेस परिषद् को, मुद्दों तथा आरोपियों को सार्वजनिक करने
पर भी चिन्तन करना चाहिए। संसद में धन लेकर प्रश्न पूछने वालों को तो सजा
मिल सकती है, क्योंकि वे तो सांसद हैं/ जन प्रतिनिघि हैं। उसी प्रकार के
कृत्य के लिए प्रेस स्वतंत्र हैं? तब आम नागरिक प्रेस के खिलाफ शिकायत करने
कैसे परिषद् तक पहुंचेगा? सजा प्रेस को मिलेगी नहीं और प्रेस पूरी उम्र
शिकायतकर्ता के पीछे पड़ा रहेगा। अच्छा तो यह होगा कि प्रेस परिषद के
कार्यकलापों की नए सिरे से समीक्षा हो। यह व्यापक भी हो और मीडिया में
व्याप्त भ्रष्टाचार के उन्मूलन को ध्यान में रखकर भी हो। जो हो, वह दृष्टि
की समग्रता, दूरदर्शिता और संकल्प की दृढ़ता के साथ हो।
श्रीमान, परिषद को प्रेस के मालिकों की सम्पत्ति की भी
जांच करवानी चाहिए। वहां भी बेनामी सम्पत्तियों का अम्बार मिलेगा। यही
नहीं, आधे से ज्यादा तो प्रेस वाले ही बेनामी/ झूठे साबित हो जाएंगे, जो
नेताओं की कृपा से सरकारी विज्ञापन बटोरकर ब्लैकमेलिंग करते रहते हैं।
सरकारी साधनों एवं धन का दुरूपयोग करना, सरकारी अफसरों से सांठ-गांठ कर
भ्रामक जानकारियां देते रहना या सही जानकारियों को दबाने का कुत्सित प्रयास
करना, आपकी दृष्टि में क्या अर्थ रखता है, यह भी परिषद के कामकाज में
दिखना चाहिए।
आपको कांटों के बीच जीना है, गुलाब की तरह। प्रेस को
प्रेरित करके जनहित से जोड़ना है। अकेला मीडिया लोकतंत्र को स्वस्थ रख सकता
है। देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कर सकता है। आज तो देश में, हर शहर में एक
ही क्लब फैला हुआ है-प्रेस क्लब। जहां कोई भी सदस्य अपने परिवार के साथ
जाकर गौरवान्वित नहीं होता। आपको इस परिदृश्य को बदलने की दिशा में ठोस कदम
उठाने होंगे।
आपको जो भी किसी राजनीतिक दल अथवा धर्म/सम्प्रदाय से
जुड़ा प्रेस दिखाई दे उसे प्रेस की सूची में रखने या न रखने पर भी सरकार को
सुझाव भेजना चाहिए। इस दृष्टि से प्रेस को नए सिरे से परिभाषित करना भी
जरूरी है। संविधान केवल जनहित के पक्षकार को ही प्रेस मानता है। न तो
व्यापारियों को, न ही दलों के पक्षकारों को। ईश्वर आपको शक्ति दे कि देश
में लोकतंत्र की पुन: प्रतिष्ठा के लिए आपकी आहुतियां फलदायी सिद्ध हो सके।
गुलाब कोठारी
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