542
सीटें...
74 दिन
और 90
करोड़
मतदाता....
जनता
जनार्दन ने बड़ी तसल्ली से
चौकीदार और नामदार को अपनी
कसौटी पर कसा...
जो
लोग 70
साल
में अपनों के साथ न्याय नहीं
कर पाए थे...
वह
पूरे मुल्क को अब न्याय देने
का दिलासा दे रहे थे...
जाति
और संप्रदाय के वो ठेकेदार
जो सत्ता की मलाई काटने के लिए
कभी भी एक दूसरे के खून के
प्यासे हो जाते...
उन्हें
सियासी जरूरतों ने चुनावी
कुंभ में बिछड़े खानदान की
माफिक फिर मिला दिया...
तमाम
विरोधाभास के बावजूद दक्षिणपंथ
के मुखालिफ खड़े सभी राजनीतिक
संगठनों में एक साम्यता थी
और वह था...
मोदी
विरोध...सियासत
के बेहद मंझे और चतुर खिलाड़ी
नरेंद्र दामोदरदास
मोदी भी तो यही चाहते थे...
पहले
रोज से ही उनकी रणनीति रही कि
लोकसभा 2019
का
चुनाव महज उन्हीं पर केंद्रित
होकर रह जाए...
जानेमाने
पत्रकार रवीश कुमार अपने
हालिया लेख में एक शब्द का
जिक्र करते हैं...
साइलेंट
वोटर...
आखिर
होते कौन हैं यह लोग...
वह
खुद ही उसका जवाब भी देते हैं..
एक
ऐसा मतदाता जो सत्ता संस्थानों
से बेहद डरा होता है...
इसकी
अपनी रणनीति होती है....
जिसके
जरिए वह अचानक पूर्व निर्धारित
सारे आंकलन पलट कर रख देता
है....
रवीश,
लालू
यादव को कोट करते हुए आगे लिखते
हैं कि लालू इसे बक्से से निकला
जिन्न कहते थे....
ऐसे
में सवाल उठना लाजमी है कि
आखिर यह डरे सहमे लोग आते कहां
से हैं?
इसका
जवाब भी रवीश अपने इसी लेख में
देते हैं...
वह
लिखते हैं कि लोकतंत्र में
या तानाशाही में नागरिक कब
साइलेंट हो जाता है इसके अलग-अलग
कारण हो सकते हैं...अंग्रेजी
में वह साइलेंट वोटर के
आगमन को 'pluralistic
ignorance'
यानि,
बहुलवादी
अज्ञान में तलाशते
नजर आते हैं...
या
यूं कहें कि वह
हिंदुस्तानी आवाम
और लोकसभा चुनाव
2019
के
जनादेश का खुला
मजाक उड़ाते हुए तमाम साम्यवादी
लेखकों की किताबों का उदाहरण
देते हुए आगे लिखते हैं कि
यूरोप में कम्युनिस्ट सरकारें
अचानक इसलिए भरभरा कर गिरीं
क्योंकि सार्वजनिक रूप से
जनता सरकार का समर्थन करती
थी,
मगर
अकेले में विरोध करती थी...
यानि
वह सभी लोग जो किसी खास विचारधारा
के समर्थकों के सामने उनकी
तारीफ करते
थे या यूं कहें कि हां में हां
मिलाता
रहे...
और
इसके उलट जब
वह अपने लोगों के
बीच में पहुंच कर
उनकी खामियां
गिनाता नजर आए...
उसे
ही बहुलवादी अज्ञानी कहा
जाएगा...
इस
विश्लेषण तक पहुंचने की जल्दबाजी
में वह सामाजिक
मनोविज्ञान के अहम अध्याय
सामाजिक सुरक्षा
और मानवीय संबंधों एवं व्यवहार
को न सिर्फ पढ़ना भूल जाते
हैं,
बल्कि
उन्हें समझ और महसूस तक नहीं
कर पाते...
वह
हिंदुस्तान के परिपेक्ष में
इस शब्द की मनचाही व्याख्या
करते हुए लिखते हैं कि...
जब
लोगों को पब्लिक में बोलने
की आजादी नहीं होती...
भय
होता है ...
तो
वे चुप हो जाते हैं...
और...
जब
कभी ऐसे लोगों को मौका मिलता
है बदलाव का...
तो
वह बड़ी से बड़ी सत्ताओं को
उखाड़ फेंकते हैं...
बावजूद
इसके,
वह
पिछले तमाम साम्यवादी उदाहरणों
को दरकिनार कर भारत जैसे
वृहद लोकतांत्रिक मुल्क
के साइलेंट वोटर को अलग से
समझाने के लिए राजनीतिक दलों
को प्रेरित करते हुए उन्हें
सलाह भी देते हैं कि...उसे
कैसे समझाया जाए,
या
इस व्यवहार को कैसे बदला जाए
इसकी समझ राजनेताओं और राजनीतिक
दलों को पहले विकसित कर लेनी
चाहिए...
तमाम
विरोधाभासों के बावजूद मैं
यही कहूंगा कि रवीश
जी सोलह आने दुरुस्त हैं...
वह
इसलिए भी दुरुस्त थे कि लोकसभा
2019
के
चुनावों में इसी साइलेंट वोटर
ने विपक्ष के सारे कयास और
उम्मीदों को सिरे से धो डाला...
वह
इसलिए भी दुरुस्त थे कि उन्होंने
जिन सियासी मित्रों को साइलेंट
वोटर को समझने की सलाह दी थी
उन्होंने इस दिशा में रत्ती
भर भी काम नहीं किया...
वह
इसलिए भी दुरुस्त थे क्योंकि
सात दशकों के शासन काल में
सबसे ज्यादा वक्त तक सत्ता
में रहने वाला राजनीतिक दल
यदि जनता को न्याय दिलाने की
मुहिम छेड़े तो मौजूदा अन्याय
के लिए साइलेंट वोटर किसे
जिम्मेदार ठहराए...
यह
नंगा सच है कि,
भारत
के भाग्य का फैसला करने के लिए
हुए इस चुनाव में आम मतदाता
वाकई में डरा हुआ था...
उसे
डर था कि वह गलती से भी कहीं
भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे
सियासी सियारों को न चुन बैठे...
वह
इसलिए भी डरा हुआ था कि उसे
मंडल से लेकर कमंडल तक और गोधरा
से लेकर मुजफ्फर नगर तक की
सांप्रदायिक लपटें दिखाई पड़
रही थीं...
वह
इसलिए भी सहमा हुआ था क्योंकि
इस बार वह महज वोट
डालने की खाना पूर्ति न कर इस
जिम्मेदारी को सलीके से अंजाम
देना चाहता था...
उसे
इस बात का भी डर था कि कहीं उसका
एक और गलत फैसला भावी पीढिय़ों
पर भारी न पड़ जाए...
मानो
इस बार उसे चिढ़ सी हो गई थी
डर की सियासत और उसके ठेकेदारों
से...
एक
तरफ राफेल था तो दूसरी तरफ
घोटालों की लंबी फेहरिस्त...
एक
तरफ चौकीदार और चायवाला था
तो दूसरी तरफ नामदार सियासी
सामंत...
एक
तरफ अजमाइश की गुंजाइश वाली
उम्मीद थी तो दूसरी तरफ वही
सात दशक का घुप्प
अंधेरा...
बस
इसी चुनाव के दवाब और गलत फैसला
होने के डर ने अधिकांश भारतीय
मतदाताओं को निश्चित
ही इस बार साइलेंट
वोटर बना दिया,
कहने
के बजाय यह कहना ज्यादा उचित
होगा कि साइलेंट पॉलिटिकल
किलर बना दिया...
दूसरी
कड़वी सच्चाई यह है कि 74
दिनों
तक आम हिंदुस्तानी अपने इसी
डर से लड़ता रहा,
लेकिन
उसे इस डर को खत्म करने का न
तो कोई तरीका मिला और ना ही
कहीं से कोई हथियार या
पैरोकार मिलता
दिखा...
दिखता
भी तो कैसे....
हर
तरफ तो बस एक ही
अक्स और शोर छाया था...
मोदी...
मोदी
और सिर्फ मोदी...
23
मई...
ठीक
12
घंटों
की कशमकश...
और
घड़ी में रात के सवा आठ बजे...
नरेंद्र
मोदी एक बार फिर महाविजेता
के तौर पर जनता से मुखातिब
हुए...
और
बोले...
कि
सिर्फ सियासी पंडितों को ही
नहीं समाज शास्त्रियों को भी
अब अपनी पुरानी सोच पर विचार
करना होगा...
जनाब!
यही
वह शब्द हैं जिनमें साइलेंट
वोटर के मोदी मय रुख की असल
वजह छिपी हुई है...
सियासत
कहती है कि दूसरों
को कटघरे में घसीटो लेकिन,
खुद
का कॉलर तो ऊंचा रखो...
वहीं,
समाज
शास्त्र कहता है कि बदनाम
होंगे तो नाम न होगा क्या?
जबकि
मनोविज्ञान के मुताबिक शैतान
का नाम जितना ज्यादा लिया
जाएगा वह उतना ही मजबूत होता
जाएगा...
मोदी
के शब्दों और तीनों वैज्ञानिक
प्रक्रियाओं का अब भावार्थ
समझें...
आप
भी बड़े भाई रवीश कुमार जी की
तरह सिर्फ शब्दों के अनुवाद
में उलझ कर न रह जाएं...
भावार्थ
यह है कि पूरे चुनावी संग्राम
के दौरान जितनी बार भी
सांप्रदायिकता,
भ्रष्टाचार
और अराजकता के आरोप
उछाले गए...
विपक्षी
ने अपनी करतूतें भी उतनी ही
बार मतदाता को याद दिलाईं....
विपक्ष
ने मोदी को शैतान साबित करने
का चक्रव्यूह रचा,
लेकिन
वह भूल गए कि जिन आधारों पर
उन्हें शैतान साबित करने की
कोशिश हो रही है...
उन
पर तो आरोप लगाने
वाले सभी महारथी महाशैतान
साबित हो रहे
है...यानि
जिस हाथ की
एक ऊंगली नरेंद्र दामोदर दास
मोदी की तरफ उठ रही थी...
उसी
की हिस्सेदार चार
उंगलियां विपक्ष की ओर..
विपक्षी
की आखिरी भूल खुद नरेंद्र
दामोदर दास मोदी ने बताई...
दूसरे
के अवगुण तलाशने की हड़बड़ाहट
और जोश अजमाईश में अपने गुण
मत भूल जाना...
मतलब
साफ है कि...
पूरे
चुनाव प्रचार में कांग्रेस
और कम्युनिस्टों समेत पूरा
विपक्ष देश के सामने राष्ट्र
के विकास और मतदाताओं के भले
का कोई ठोस रोड मैप नहीं रख
सका...
मोदी
खुद मुद्दे भी बताते हैं जिन
पर विरोधी
उन्हें घेर सकते थे...
वह
कहते हैं कि उन्हें
मंहगाई के मुद्दे पर घेरा
जा सकता था...
वह
उठा सकते थे एकता,
अखंडता
और राष्ट्रवाद का परचम...
वह
ला सकते थे सांप्रदायिक और
जातिवाद के टैग का नया प्रिंट
आउट...
इतना
ही नहीं,
विपक्ष
में शामिल एक भी दल या मोदी की
मुखालफत में जुटा एक भी अलमबरदार
हिंदुस्तान की आवाम को विश्वास
दिलाना तो दूर इतना भी नहीं
कह सका कि...
उनकी
जीत किसानों की जीत होगी...
नहीं
कह सके कि उनकी सफलता युवा और
छात्रों की सफलता होगी...
वह
नहीं बता सके कि उनका साथ मां
बहिनों की सुरक्षा की गारंटी
होगा...
वह
नहीं दिला सके भरोसा कि वह
जहां खड़े होंगे वहां से
सांप्रदायिकता और जातिवाद
दफा हो जाएंगे...
दंगे
नहीं होंगे...
उल्टा,
हार
से बौखलाए कथित युवा तुर्क
हार्दिक पटेल ट्विट करते हैं
कि...
कांग्रेस
नहीं बेरोजगारी हारी है...
शिक्षा
हारी है...
किसान
हारा है...महिला
का सम्मान हारा है...
एक
उम्मीद हारी है...
सच
कहें तो हिंदुस्तान की जनता
हारी है...
अरे
भाई पटेल साब !
आपकी
लिस्ट के मुताबिक ये जो सारे
हारे हैं न,
वह
पहली बार नहीं हारे...
इससे
पहले 15
बार
और हार चुके हैं...
कभी
खानदान से...
कभी
विरासत से...
कभी
क्रांति की छलना से...
कभी
आतंकवाद से तो कभी...
जाति...
धर्म
और साम्प्रदाय से...
खेती,
किसानी,
मजदूरी,
गरीबी
और भुखमरी तो अब हार जीत के
ट्रेंड से ही बाहर हो चुके
हैं...
टोटली
आउट ऑफ फैशन...
ओ
भाई साहब,
जरा
कलेजा मजबूत कर लो...
फिर
सुनो...
जनता
के इस सिंहनाद को और समझो...
दक्षिणपंथियों
की दो सीटों से
लगातार दूसरी बार
पूर्ण बहुमत से सत्ता में आने
की वजह...तो
वह थी सिर्फ और सिर्फ मोदी...
जिनकी
सियासी चाल में पूरा विपक्ष
इस कदर फंसा कि पुस्तैनी जमीन
तक गंवा बैठा...
साल
2014
के
चुनाव में तो मोदी ने उनसे महज
सियासी हिस्सेदारी ही छिनी
थी,
लेकिन
इस बार के नतीजे से तो उन्होंने
संपूर्ण विपक्ष के सामने
अस्तित्व का संकट भी खड़ा कर
दिया...
जनता
की हार का ट्वीट करने वाले
हार्दिक को नहीं पता था कि वह
जिस स्कूल में अभी पढ़ रहे
हैं,
मोदी
कभी उसके प्रिसिपल
रह चुके थे और आज
कुलपति बन चुके हैं...
हार
से हताश विपक्ष ने ध्रुत सभा
में ईवीएम को पांचाली बना
डाला...
एक
मशीन के कपड़े उतारने से पहले
अपने गिरेवां में झांक निज
नाकामियाबी की वजह तक तलाशना
जरूरी नहीं समझा...
यह
लोग कुछ करने के बजाय सिर्फ
भाई रवीश
कुमार का लेख ही पढ़ लेते तो
भी काफी था...
उनकी
समझ में आ जाता कि भाजपा का मत
प्रतिशत बढ़ाने वाला वही
साइलेंट वोटर है जो सालों से
डरा और सहमा हुआ खड़ा था...
इस
डरे सहमे वोटर को मोदी ने जीत
का पहला पैकेज चुनाव से पहले
सर्व किया था...
वही
आरक्षण जिस पर आजादी
के पहले से ही
सियासी रोटियां
सेकी जा रहीं हैं...
मोदी
ने सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी
के बावजूद न सिर्फ पुराने
आरक्षण को बचाए रखा,
बल्कि
दस फीसदी सवर्णों को भी आरक्षण
देकर सालों पहले बोई गई कटुता
की खाई को पाटने के लिए इसी
पुराने प्रोडक्ट की नई पैकेजिंग
कर डर के मार्केट में
फिर से लांच कर
दिया...
नतीजा,
क्या
अगड़ा और क्या पिछड़ा,
क्या
दलित और क्या सवर्ण सभी एक ही
कूपे के सवार हो गए...
दूसरा
पैकेज था ब्रांड मोदी...
पूरे
चुनाव में विपक्ष खुद की रणनीति
बना उसमें भाजपा
को उलझाने और खुद को फॉलो कराने
के लिए मोदी को मजबूर करने के
बजाय,
सिर्फ
मोदी को ही घेरने के चक्कर में
उनका फॉलोअर बना रहा...
यही
तो वह चाहते थे...
कि
भाजपा जो भगवा विचारों की
ध्वजवाहक है वह लड़ाई के सीन
से बाहर हो जाए...
ताकि
पार्टी की अब तक की सारी भूल
और एजेंडे...
चाहे
वो गोधरा हो या फिर राममंदिर
भुला दिए जाएं...
तीसरा
पैकेज मोदी खुद बताते हैं....
प्रचंड
बहुमत के बाद माइक संभालते
ही कर्मयोगी कृष्ण को टूल बना
मोदी खुद की लड़ाई को राष्ट्र
की लड़ाई साबित कर डालते हैं...
चूं
तक नहीं बोल सका कोई...
आखिर
बोलता भी कैसे क्योंकि सभी
को अच्छे से पता है कि हिंदुस्तान
में धर्म से ज्यादा राष्ट्र
बड़ी कारगर अफीम साबित होता
है...
बाकी
इलेक्शन पैकेज की परतें भी
वह भाजपा मुख्यालय के बाहर
ही यह कहते हुए खोल देते हैं
कि....
विपक्ष
ने पूरे चुनाव में सिर्फ मोदी
को घेरा...
क्योंकि
वह जानता था सेक्युलरिज्म के
टैग का प्रिंट आउटडेटिड हो
चुका है...
मतलब
साफ है कि पूरा विपक्ष भाजपा
से कथित रूप से डरे हुए अल्पसंख्यकों
के नाम पर भी एकजुट नहीं हो
सका...
नतीजन,
दशकों
पुराना यह वोट बैंक कई हिस्सों
में बंट गया...
और
उसके उलट सेक्युलरिज्म के
टैग से डरा हुआ साइलेंट वोट
अपने डर को खत्म करने के लिए
एक मंच पर उतर आया...
ऊपर
से जातिवादी राजनीति से डरे
हुए वोटर
ने भी उसका हाथ थाम लिया...
आगे,
मोदी
विपक्षी अकर्मण्यता को बेनकाब
करते हुए कहते हैं कि उन्हें
मंहगाई के मुद्दे पर घेरा जा
सकता था...
उन्हें
भ्रष्टाचार,
ईमानदारी,
40 करोड़
मजदूरों के हक,
युवाओं
के आत्मसम्मान और किसानों की
फाकापरस्ती,
बीमारों
के इलाज के मुद्दे पर भी घेरा
जा सकता था,
लेकिन
मोदी नाम की अफीम खाए विपक्ष
को इन सबका होश ही कहां था...
रण
तो था,
लेकिन
रणनीति नदारद थी...
मौका
तो था,
लेकिन
मोदी ने उसे मुमकिन नहीं होने
दिया...
इस
कमजोरी का सबसे सटीक आंकलन
किया राजस्थान पत्रिका के
प्रधान संपादक गुलाब कोठारी
ने...
वह
अपने अग्रलेख में लिखते हैं
कि...
चुनाव
किसी युद्ध की तरह हार जीत के
लिए नहीं होते...
विधायिका
के लिए अच्छे जनप्रतिनिधि
चुनने के लिए होते हैं...
सभी
दल अपनी-अपनी
नीतियों द्वारा अपनी श्रेष्ठता
सिद्ध करने का प्रयास करते
हैं,
तथा
अपने घोषणा पत्रों के जरिए
भविष्य की एक तस्वीर जनता के
समक्ष रखते हैं...लेकिन,
इस
बार चुनाव पूर्व ही देश खंडित
था...
मूल्य
और मर्यादाहीन था...
असहिष्णु
था....
जिनके
विकास के लिए चुनाव हुए उनके
सुख दुख की चर्चा तक नहीं हुई...
और
गिरावट इतनी कि पुराने मामले
खोद निकाले गए।
मोदी
अच्छी तरह जानते थे कि पार्टी
के आधे से ज्यादा नेता इस कदर
नकारा हैं कि वह किसी भी सूरत
में जीत नहीं सकते,
इसीलिए
तो उन्होंने उन प्रत्याशियों
को विकास और काम के बजाय अपने
नाम पर वोट मांगने की नसीहत
दी...
बेचारे
मनोज सिन्हा जैसे कर्मठ
कार्यकर्ता इस नसीहत को न समझ
सके और वही गलती कर बैठे जो
मोदी नहीं चाहते थे...
नतीजा,
हार
गए...
अखिलेश
यादव भी तो हारे थे...बाबा
हरदेव सिंह से लेकर शर्मिला
इरोम तक लंबी फेहरिस्त है...
ऐसी
शख्सियतों की जिन्होंने पक्के
ईमान से आवाम की सेवा का संकल्प
लिया था...
और
मुल्क की तस्वीर बदलने का
शानदार खाका खींचा था...
लेकिन
वह सभी मोदी जैसी पैकेजिंग
नहीं कर पाए और हार गए...
वयोवृद्ध
पत्रकार के.
विक्रम
राव के शब्दों में समझें तो
राजनेता वह बीन होता है...
जिसकी
धुन पर जनता सांप की तरह नाचने
को मजबूर हो जाए...
जो
यह नहीं कर सकता वह राजनेता
कहलाने के लायक नहीं है...
यही
तो हुआ इस चुनाव में...
मोदी
रूपी बीन की धुन पर साइलेंट
वोटर नाचा और बुर्जुआ
सियासी सल्तनत
को जमींदोज कर गया....
इन
सभी के बीच एक और बड़ा सवाल कि
चलो जीत गए,
लेकिन
जीत इतनी प्रचंड होगी यह किसी
ने क्यों नहीं सोचा...
तो
जनाब इसका जवाब भी मोदी खुद
ही देते हैं...
वह
अपनी जीत का क्रेडिट न तो भगवान
राम को देते हैं और न ही भोलेनाथ
को...
न
पार्टी के किसी आला
नेता को और ना ही
स्टार प्रचारकों को...
वह
क्रेडिट देते हैं पन्ना
प्रभारियों को...
असंख्य
लोग नहीं जानते कि यह
क्या बला है...
तो
जान लीजिए कि यही वो इंजन है
जिसने मोदी की माल गाड़ी को
राजधानी में तब्दील कर
दिया...
पार्टी
का सबसे निचला पदाधिकारी...
जिसने
बूथ स्तर पर मतदाता सूची के
पन्ने पर दशकों से दर्ज नामों
को मतदान केंद्र तक लाकर न
सिर्फ सबसे अहम
जिम्मेदारी निभाई
बल्कि विपक्षियों
को आइना भी दिखाया कि ...
आखिरी
समय तक जब तुम प्रत्याशी नहीं
तलाश पाए...
तो
भला तुम्हारे पास राष्ट्रीय
से लेकर बूथ स्तर तक पार्टी
का संगठनात्मक ढ़ांचा खड़े
करने की न तो फुर्सत थी
और न हीं तमीज...
और
मोदी ने इन पन्ना प्रमुखों
को नमन कर विपक्ष को नसीहत दी
कि अगले पांच साल तक ईवीएम को
कोसने के बजाय जाओ पार्टी का
संगठनात्मक ढ़ांचा फिर से
खड़ा करके आओ...
जाओ
संसद से लेकर सड़क तक नई लड़ाई
लड़कर आओ...
फिर
जनता सोचेगी कि तुम्हें सत्ता
सौंपे या नहीं....
अब
जो आखिरी सवाल उठ रहा है,
वह
यह है कि जो हुआ सो हुआ,
लेकिन
अब आगे क्या...
तो
प्यारे विपक्ष जान लो...
कि
आगे हिंद महासागर और मोदी
तुम्हें उसमें
डुबो-डुबो
कर मारने
की योजना बना चुका है...
यह
मैं नहीं कह रहा...
खुद
मोदी ही कह रहे हैं...
यकीन
न आए तो प्रचंड जनाधार हासिल
करने के बाद भाजपा मुख्यालय
के बाहर राष्ट्र को संबोधित
करने आए उस शख्स को एक बार फिर
सुन और देख लो...
यह
हिंदुस्तान का नया शासक नहीं
था...
और
ना ही जीत के नशे और दंभ से चूर
कोई फासीवादी
आताताई विजेता...
गुरुवार
रात सवा आठ बजे
जनता के सामने आए नमूदार हुए
नरेंद्र दामोदर दास मोदी...
गुजरात
के पूर्व मुख्यमंत्री या 16
वीं
लोकसभा में चुने गए पूर्व
प्रधानमंत्री भर नहीं थे...
पूरी
तरह से सधे और संभले हुए...
मंझे
राजनेता और भविष्य की समझ रखने
वाले समाज शास्त्री के पैराहन
में खड़े
नए भारत की नई सोच वाले भविष्य
की नई नींव रख रहे
देश के नए मुखिया
थे...
यानि
पूरी तरह से नए अवतार में उतरे
नए नरेंद्र मोदी थे...
उन्हें
अच्छी तरह पता था कि पूरा देश
इस बात से आशंकित है कि मोदी
फिर से सत्ता में आए हैं तो
कहीं नोटबंदी,
जीएसटी
और गोधरा जैसे पुराने कांड
फिर न दोहराए
जाएं...
वह
ममता बनर्जी के काट डालने मार
डालने वाले बयानों को भी भूले
नहीं थे...
और
ना ही इस बात को कि उनके खेमे
में साध्वी प्रज्ञा और योगी
आदित्यनाथ जैसे कट्टर भगवा
धारियों की लंबी जमात शामिल
है...
यही
वजह थी जो मोदी ने संबोधन शुरू
करने के चंद सेकंड बाद ही अपने
दल भारतीय जनता पार्टी के भाव
को भारत माता की
सच्ची सेवा और संविधान
के असल
समर्थन में अर्पित
कर डाला...
उन्होंने
कट्टरता को परे धकेलने की भी
जबरदस्त
कोशिश करते हुए कहा कि दो से
दोबारा आने के बाद भी उनके लोग
नम्रता,
विवेक,
आदर्श
और संस्कारों को नहीं छोड़ेंगे...
इतना
ही नहीं उन्होंने भविष्य का
खाका उजागर करते हुए कहा कि
आम आदमी की किस्मत संवारने
के लिए न सिर्फ देश की एकता और
अखंडता जरूरी है...
बल्कि,
आवाम
की जिंदगी में सिर्फ दो ही
जातियां शेष रह जानी हैं...
पहली
गरीब और दूसरी देश को गरीबी
को मुक्त कराने के लिए अपना
योगदान देने वालों की...
उन्होंने
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी
यानि अहिंसा,
सत्य
और संघर्ष को अपनी मजबूती
बनाते हुए कहा कि राष्ट्र उनकी
सच्चे भाव के साथ उनकी 150वीं
जयंति मनाएगा और आजादी की 75
वां
जश्न....
उन्होंने
संकल्प मांगा हिंदुस्तानी
आवाम से कि 130
करोड़
लोग यदि संकल्प कर लें कि आने
वाले पांच सालों तक वह उसी
जज्बे
और भावना से
भारत को विकसित राष्ट्र बनाने
के लिए अपना सर्वस्व झौंक
देंगे जंगे आजादी
में दिखाई
पड़ा था...
उन्होंने
शुरुआती मिनटों में ही आर्थिक
और सामाजिक रूप से स्वतंत्र
भारत और समृद्ध भारत का ख्वाब
करोड़ों लोगों की आंखों में
भर दिया...
वैमनस्य
को परे धकेल उन्होंने विपक्ष
की ओर खुले दिल से हाथ बढ़ाते
हुए कहा कि चलो जो हुआ उसे भूल
जाते हैं...
कौन
क्या बोला बात गई...
लेकिन
अब देश सभी को साथ लेकर चलाना
है...
क्योंकि
लोकतंत्र के संस्थान,
संविधान
और राष्ट्रीय अवधारणा की आत्मा
कहती है कि देश को सर्व सम्मति
से चलाना है...
इसलिए
उन्होंने अपने सांसदों को
सबक दिया कि उदंडता मत दिखाना
इस जीत को नम्रता से स्वीकार
करना...
संविधान
की छाया में चलना...
खुद
को फकीर घोषित करते हुए वह यह
भी कहने से नहीं चूके कि जिस
जनता जनार्दन ने प्रचंड बहुमत
से उनकी झोली भरी है उसकी आशा,
आकांक्षा,
सपने
और संकल्प आदि बहुत कुछ सरकार
के कामकाज की शैली से जुड़ा
है...
समझता
हूं इसके पीछे की उन भावनाओं
को जिन्होंने उनकी जिम्मेवारी
को और बढ़ा दिया है...
इसलिए
नए राष्ट्र का नया प्रधानमंत्री
यानि नया मोदी खुले मंच से न
सिर्फ घोषणा बल्कि,
वायदा,
संकल्प,
समर्थन
और प्रतिबद्धता जाहिर करता
है कि...
वह
बद इरादे और बदनीयत से कोई काम
नहीं करेगा...
समय
का हर एक पल और शरीर का हर एक
अंश राष्ट्र एवं देश की सेवा
में अर्पित कर दूंगा...
इतना
ही नहीं वह यह भी कहने से नहीं
चूकते कि मैं मेरे लिए कुछ
नहीं करूंगा...
यानि
जो तेरा है तुझको अर्पण...
और
आखिर में उन्होंने प्रेम और
उत्साह के समंदर को कायदों
से बांधने में भी कोई कसर नहीं
छोड़ी...
नरेंद्र
दामोदर दास मोदी ने माना कि
इन सबके बावजूद भी गलती हो
सकती है...
लेकिन,
वह
नहीं चाहते थे कि आवाम
उन्हें नजरंदाज कर फिर
से साइलेंट वोटर बन जाए...
इसीलिए
वह जनता जनार्दन
से अपील करते हैं कि कसौटी की
तराजू पर उन्हें हर रोज कसा
जाए और उनकी हर कमी के लिए
उन्हें न सिर्फ कोसा जाए,
बल्कि
बताया भी जाए,
ताकि
वह उसे वक्त रहते दुरुस्त कर
सकें...
मानता
हूं तमाम लोगों को यकीन नहीं
होगा...
खुद
मोदी को भी नहीं था...
इसीलिए
वह आखिर में यह कहने से भी नहीं
चूके कि जो कहा है उसे जीने की
भरपूर कोशिश करेंगे...
अब
देखना यह होगा कि आवाम खुद को
स्वतंत्रता संग्राम के मुकाबिल
समृद्ध भारत की स्प्रिट पर
कितना कस पाती है...
क्योंकि
अब मुल्क को फॉलोअर नहीं
चाहिए...
खुद
की लकीर खींच कर उसके फकीर बन
सकें ऐसे लीडर चाहिए...
वो
ड्रीमर चाहिए जो बिलीवर
और प्रफॉर्मर भी
हो...
सत्ता
की कसौटी पर कसा जा सकने वाला
सियासी फकीर भी चाहिए...
जो
मोदी की शक्ल में उसे फिलहाल
तो मिल ही चुका है...
बस
जाति-मजहब,
आदम
और पंथ के बजाय भारत माता की
जय का घोष करने वाली आवाम
मुफ्तखोर स्वार्थी
कबीलों के आगे कब तक टिक सकेगी
यह देखने की बात होगी। बहरहाल,
लोकसभा
चुनाव 2019
के
नतीजों के साथ ही सबकुछ पीछे
छूट चुका है...
बस
अब नए मोदी और नए
हिंदुस्तान की बात होगी...
मोदी
रिटर्न्स की बात होगी...
सियासी
फकीर और आवाम की कसौटी की बात
होगी।
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