पान के खोखे से लेकर चाय की दुकान तक .... दोस्तों की बैठकी से लेकर किटी पार्टी तक या फिर ......दफ्तर से लेकर घर तक.... हर कोई अपनी समझ और सुविधा के हिसाब से लोकपाल बिल के ड्राफ्ट पर अपनी विशेषज्ञता का इजहार कर रहा है लेकिन हर अंजाम तक फटाफट पहुंचने वाले इस दौर में किसी के पास इतनी फुर्सत नहीं कि लोकपाल के वास्तविक नफे-नुक्सान पर दो पल शांति से बैठकर ... अध्ययन कर सके और सोच सके। मेरे हिसाब से किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले लोकपाल की कुछ बातों पर ध्यान देना जरूरी है... मसलन यह कि दुनियां के किसी भी मुल्क में राष्ट्र प्रमुखों को लोकपाल जैसी किसी भी संस्था के दायरे में नहीं रखा गया है ... हर जगह वह जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली संसद के प्रति ही जवाब देह है न कि किसी और दूसरी संस्था के प्रति....... इसी के साथ भारतीय संविधान का ज्ञान रखने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार निरोधक कानून के दायरे में आते हैं और वह इस तरह की किसी भी कानूनी कार्रवाई से बाहर नहीं हैं.......वहीं सरकार जिस लोकपाल को ला रही है उसमें भी मौजूदा प्रधानमंत्री के कुर्सी से हटते ही वह लोकपाल जांच के दायरे में आ जाता है ...... यानि सत्ता प्रमुख के पद की गरिमा को बनाये रखा गया है .... व्यक्ति विशेष किसी भी कानूनी कार्रवाई से नहीं बच सकता.......
सरकार जिस लोकपाल को संसद में लेकर आयी है उस पर कुछ राजनीतिक दलों और छह लोगों की सिविल सोसायटी को आपत्ती है ......... पहले राजनीतिक दलों की बात करते हैं....... लोकपाल के सरकारी स्वरूप का सबसे ज्यादा विरोध भारतीय जनता पार्टी कर रही है.... लेकिन भाजपा शासित राज्यों पर नजर डालें तो वहां या तो लोकपाल के छोटे स्वरूप लोकायुक्त की नियुक्ति तक नहीं की जाती है और नियुक्ति हो भी जाती है तो राज्य का मुखिया मुख्यमंत्री उसके दायरे में नहीं आता है ...... यानि एक ही व्यवस्था पर दो व्यवहार.....यदि थोड़ा पीछे नजर डालें तो भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(एनडीए) की सरकार ने 2002 में लोकपाल बिल के लिए बनाये मसौदे में प्रधानमंत्री को शामिल तो कर लिया था लेकिन इस मसले पर बनी संसद की स्थायी समिति के मंजूरी दिये जाने के बाद भी जब तक एनडीए की सरकार रही इस बिल को पास करना तो दूर की बात संसद में पेश तक नहीं किया गया...... उस वक्त इस स्थायी समिति के अध्यक्ष देश के वर्तमान वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी थे...... यहां दो सवाल उठना लाजमी हैं ... पहला यह कि उस वक्त प्रणव मुखर्जी यानि कांग्रेस चांहती थी कि जल्द से जल्द प्रधानमंत्री लोकपाल के दायरे में आये ....... और भाजपा चांहने के बावजूद करने को तैयार न थी.... आखिर क्यों ? और, दूसरा सवाल यह कि सत्ता बदलते ही कांग्रेस और भाजपा दौनों अपने पुराने रुख से पलट गये ... यानि अब भाजपा चाहती है कि लोकपाल को जल्द से जल्द लागू किया जाये लेकिन कांग्रेस अब प्रधानमंत्री को उससे बाहर रखना चाहती है ........ मतलब साफ है .......दौनों राजनीतिक दल जनता को भ्रमित कर रहे हैं उन्हें लोकपाल चाहिए लेकिन विपक्ष में रहकर....सत्ता में रहते समय नहीं........
इस बात से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता कि हाल ही में सरकार द्वारा संसद में पेश किये गये लोकपाल बिल के मसौदे में कुछ प्रावधान आपत्तीजनक हैं...लेकिन इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि मौजूदा विधेयक का दायरा अब तक के किसी भी भ्रष्टाचार विरोधी मसौदे से ज्यादा व्यापक और शक्तिशाली है..... यदि किसी को कोई आपत्ती है तो इसके लिए गठित होने वाली संसद की स्थाई समिति की चर्चाओं में जरूरी संशोधन और नये प्रस्तावों को जुडवाकर और मजबूत बनावा सकता है ... इस समिति में सभी दलों को प्रतिनिधित्व मिलता है...... लेकिन किसी के पास इतना इंतजार करने की फुर्सत कहां है .... मामला गर्म है इसलिए राजनीति की रोटियां भी सेकनी हैं... बाद में ठंडा पड़ गया तो वह कच्ची रह जायेंगी....... शायद यही वजह है जो जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों में इस मुद्दे पर विरोधाभास है।
सबसे पहले बात सरकार को चलाने और बचाने वाले समूह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की .... तो चौंकाने वाली बात यह है कि भ्रष्टाचार के समंदर में नाक तक डूबा करुणानिधि का द्रमुक चाहता है कि प्रधानमंत्री भी लोकपाल के दायरे में आयें.......और तो और .........भूमि अधिग्रहण और ताज केरीडोर जैसे बड़े घोटालों के आरोप में फंसी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती भी चाहती हैं कि प्रधानमंत्री पर लोकपाल की लगाम हो.... लालू भले ही लोकपाल की मुखालफत का रास्ता चुन चुके हों लेकिन समाजवादी पार्टी अभी इससे होने वाले नफे-नुकसान का हिसाब जोड़ने में लगी है..... सो चुप्पी साध रखी है.....कुछ ऐसा ही हाल विपक्ष के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का भी है.... भाजपा और जनता दल (यू) सत्ता में रहते हुए जो न कर सके वह कांग्रेस से करवाना चाह रहे हैं....... लेकिन अकाली दल उनके रुख से इत्तफाक नहीं रखता .... सो उनके खिलाफ है.....वहीं इनकी पुरानी साथी रहीं जे. जयललिता हालात का जायजा ले रही हैं .... कि, ऊंट किस करवट बैठेगा .... कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री जैसे प्रमुख पद की गरिमा की रेटिंग ....राजनीतिक दलों की निगाह में सत्ता में रहने या न रहने पर घटती-बढ़ती रहती है .... और उस पर किसी बाहरी नियंत्रण का विरोध या समर्थन फायदे या घाटे के समीकरण पर टिका है..........
यह तो था राजनीतिक दलों का दोमुहां रवैया अब एक बार देश की सवासौ अरब जनता के रातों-रात खड़े हुए छह सदस्यीय प्रतिनिधियों यानि सिविल सोसायटी की मंशा को भी परख लेते हैं...... इस समूह की एक बात जो समझ से परे जाती है वह उनकी हठधर्मिता है....... इन लोगों को न जाने क्यों लगता है कि लोकपाल का जो मसौदा उन्होंने तैयार किया है वही आखिरी मसौदा है ....... और उसका दर्जा देश की जनता की नजरों में गीता-कुरान-बाइबिल-गुरुग्रंथ साहब से कम नहीं होना चाहिए...... जिस पर किसी को उंगली उठाने का हक नहीं है........ यह मसौदा कैसै और कब बना या फिर किसने बनाया सभी को पता पता है ..... लेकिन क्या बना इस सवाल पर देश की तीन चौथाई से ज्यादा जनता अभी तक अंधेरे में है...... बनाने वालों की राजनीतिक निष्ठा किस सत्ता के साथ कब बदली यह भी सभी जानते हैं........ सरकार पर आरोप है कि उसने इस पाक मसौदे के सिर्फ एक चौथाई हिस्से को ही माना लेकिन टीम अन्ना को सौ फीसदी से कम कुछ भी मंजूर नहीं.....
भारतीय संविधान की सबसे मजबूत प्रक्रिया का नाम है लोकतंत्र यानि जनता और उसकी चुनी हुई संसद.... जिसे किसी भी प्रस्ताव को मंजूर या नामंजूर करने का पूरा हक दिया गया है..... आम राय न बने तो मतदान का प्रावधान भी रखा गया है... जो बहुमत कहे वह किया जाये....ठीक वैसे ही जैसे सिविल सोसाइटी को संविधान ने सरकारी मसौदे का विरोध करने या उसकी प्रतियां जलाने का अधिकार दिया है .....
लेकिन सवाल तब उठता है जब कुछ लोगों खुद को इस संविधान से बड़ा बताने लगते हैं... और लोकतांत्रिक प्रक्रिया से खुद को ऊपर मानने लगते हैं....वकालात की जाती है एक ऐसी संस्था के गठन की जो किसी के प्रति जवाब देह न होकर पूरी संवैधानिक व्यवस्था को अपने प्रति जिम्मेदार बना देना चाहती है.... मानते हैं कि देश को इस वक्त यदि किसी चीज की सबसे ज्यादा जरूरत है तो वह है भ्रष्टाचार के खात्मे की लेकिन देश के संविधान को और लोकशाही की व्यवस्था को नुकसान पहुंचाये बिना.... जरा सोचकर देखिये उस हालात के बारे में जब कोई लोकपाल पथभ्रष्ट हो जाये.......और वह भी तब जब देश के न्यायालय और संसद को कटघरे में खड़ा कर चुका हो...... क्या हाल होगा देश का उस वक्त...... आखिर बना तो वह भी हाड-मास का ही होगा.... उस समय विपक्ष और मीडिया का क्या रुख होगा .... क्या देश की स्थिरता कायम रखा जा सकेगा उस हाल में....इसलिए शायद इतनी महत्वपूर्ण संस्था की स्थापना पर थोड़ा धैर्य रखने और विवेक से काम लेने की आवश्यक्ता है ....... लोकपाल बने भले ही अगली सरकार आये तक .... लेकिन जब भी बने वह देश के संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करने के लिए बने न कि उसे कमजोर करने के लिए.... अस्थिर करने के लिए....
एक आखिरी बात ....... पूरे मसौदे में प्रधानमंत्री को शामिल करने या निकालने के सवाल को नाक के सवाल से न जोड़ा जाये.... इस मुद्दे को व्यवहारिक रूप से सुलझाने की जरूरत है .... एक बार मान भी लिया जाये कि कांग्रेसनीत केन्द्र सरकार एक भ्रष्ट प्रधानमंत्री को बचाने के लिए टीम अन्ना की बात सुनने को तैयार नहीं लेकिन जरा दिमांग पर जोर डाला जाये तो उसके दूसरे निहितार्थ भी हैं.... यदि प्रधानमंत्री के खिलाफ शिकायतों का सिलसिला शुरु होता है तो सबसे पहला नुकसान यह होगा कि देश के मुखिया का पद कमजोर होगा और गरिमा क्षीण.... क्या कोई इस बात से इन्कार कर सकता है कि सूचना के अधिकार का दुरुपयोग नहीं हो रहा या फिर जनहित याचिका के नाम पर फिजुल के मामले नहीं उठाये जाते .... उसे देखते हुए यदि प्रधानमंत्री के खिलाफ लोकपाल के पास शिकायतें आती हैं तो क्या मामलों को निपटाने, विवादों की सुनवाई करने, सवाल जवाब करने, सफाई देने और लोकपाल के दरबार में हाजिरी लगाने से प्रधानमंत्री जैसी संस्था का समय और ध्यान दोनों जाया होंगे..... हर समय वह बचाव की रणनीति ही अपनाता रहेगा ... काम कब करेगा ? जबकि सरकारी मसौदे में उसके पद से हटने पर जांच और सजा का प्रावधान है....कम से कम एक आदमी को तो चैन से काम करने दिया जाये....... हां सरकारी मसौदे की दो बातें जरूर स्वीकार नहीं की जा सकती वो यह कि .... यदि किसी शिकायतकर्ता की शिकायत झूठी निकली तो उसके खिलाफ सजा का प्रावधान किया जाये और दूसरा लोकपाल की नियुक्ति प्रक्रिया, जिसे सरकार अपने नियंत्रण में लेना चाहती है।
बड़ा काम है ... बड़ा फैसला है ... और बड़ा ही परिणाम सामने आयेगा... तो फिर छोटी-छोटी बातों पर तकरार करने के बजाय उन्हें दुरुस्त करने के रास्ते तलाशने होंगे ... और तलाशना होगा एक ऐसा मुकम्मल लोकपाल जो देश के संविधान...लोकतांत्रिक व्यवस्था और जनता से ऊपर तानाशाही की नई मुसीबत खड़ी करने की बजाय उनकी गरिमा और स्वरूप को निखारे न कि ग्रहण लगाये।
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