• सत्याग्रहः जंग-ए-आजादी के हथियार को कमजोर समझ बैठी सरकार

    नई दिल्ली।सरकार कहती है कि शांति पूर्ण तरीके से आंदोलन करो हम सुनेंगे लेकिन क्या सरकार ने कभी महसूस की ईरोम शर्मिला की भूख, क्या सरकार ने कभी जहमत उठाई स्वामी निगमानंद की मौत से सबक लेने की, या फिर कभी सरकार ने समझा पुलिसिया कहर के चलते जिंदगी और मौत के बीच झूलती राजबाला का दर्द। नहीं कभी नहीं क्योंकि सबके सब गांधी जी के अहिंसा और सत्याग्रह का व्रत लिये हुए हैं। सरकार को तो बस चिंता होती है कि किस तरह कश्मीर में स्वतंत्रता दिवस पर भी तिरंगा न फहर सके क्योंकि वहां हिंसा भड़क सकती है, सरकार तो बस समझती है रामदेव के समर्थकों पर आधीरात में कायराना हमला करने की वजह क्योंकि देश में काले धन के खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ सकता है और सरकार समझती है बस अन्ना को जेल में ठूसना क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ उसकी झूठी सांत्वना की कलई खुल सकती है और सवा सौ करोड़ हिन्दुस्तानी मांग सकते हैं उससे हिसाब 2 जी स्पेक्ट्रम या कॉमन वेल्थ गेम्स में फंसे उसके नेताओं की तरफदारी का हिसाब।
    बात शुरू करते हैं ईरोम शर्मिला से., वह 04 नवम्बर 2000 से अनवरत भूख हड़ताल पर बैठी हैं और तभी से न खत्म होने वाली पुलिस हिरासत में हैं। उन पर आरोप है आत्म हत्या के प्रयास का, लेकिन सवाल उठता है क्यों ? शायद इसका जवाब सरकार आपको न दे क्योंकि उसे येन-केन-प्रक्रेरण शासन चलाना है और अपनी सत्ता का एहसास भी कराते रहना है।
    कारण हम बताते हैं, मणिपुर राज्य में पचास के दशक में स्वायत्तता और भारत के अन्य राज्यों की तरह विकास की मांग करते हुए पृथ्थकवादी आंदोलनों ने तेजी पकड़ी। केन्द्र और राज्य की सरकारों ने तब इस ओर ध्यान न दिया और हमेशा ही उसे हल्के में लिया। सरकार के कान मूंदने का फायदा हमारे उन पड़ौसियों ने उठाया जो देश में अलगाव पैदा कर हमारी शांति को भंग करना चाहते थे और नतीजा उल्फा जैसे हिंसा में विश्वास रखने वाले अलगाववादी संगठनों ने पूर्वोत्तर राज्यों में पैर जमाना शुरू कर दिया। शायद भारतीय सरकारें कभी भी इस ओर ध्यान नहीं देतीं यदि उल्फा जैसे संगठनों ने हिंसा का सहारा लेकर सरकार का ध्यान मणिपुर जैसे सीमांत राज्यों में व्याप्त बदहाली की ओर न खींचा होता लेकिन सरकार ने इन राज्यों में व्याप्त समस्याओं को दूर कर आम आदमी को अलगाववादी आंदोलनों से दूर करने की बजाय उसे दबाने के लिए फौजी बूटों और बटों का सहारा लिया। साथ ही सशस्त्रबल विशेषाधिकार कानून लागू कर उन्हें ऐसे असीमित अधिकार दे दिये जिसके तहत किसी भी पुलिसिया कार्रवाई पर कहीं भी कोई सुनवाई या उसका विरोध नहीं किया जा सकता था। इस कानून की आड़ में प्रशासन में बैठे कुछ असमाजिक तत्वों ने इस इलाके में जमकर कहर ढ़ाया। इसी कानून को खत्म करने की मांग कर रही हैं गांधीवादी शर्मिला इरोम। गांधीवादी तरीका अपनाते हुए उन्होंने अनशन को अपने विरोध का हथियार बनाया, नतीजा एक दशक से भी ज्यादा वक्त हो गया इस लड़ाई को लेकिन केन्द्र सरकार के कान पर जूं तक न रेंगी। फिर कैसा दावा कि शांति से आंदोलन करो हम सुनेंगे।
    गांधीवादियों को जबरन खामोश करने की यह कोई अकेली सरकारी कोशिश नहीं है। भारतीय जनमानस शायद ही भूला होगा.........13 जून 2011 का दिन...... जी हां, अहिंसा और सत्याग्रह के बल पर आजाद हुए हिन्दुस्तान के इतिहास का एक और काला दिन ....इसी दिन 116 दिनों के सत्याग्रह के बाद स्वामी निगमांनन्द सरकार और जनता की उपेक्षाओं का शिकार हो ब्रह्मलीन हो गये थे। सभी जानते हैं जल ही जीवन है लेकिन इस जीवन को अब वेंटिलेटर की जरूरत है। जरूरत है इसके सही दोहन की और जीवनदायनी नदियों के सहेजने की। सम्पूर्ण राष्ट्र की, जनता की, हर खास-ओ-आम की जरूरत को अपने जीवन का ध्येय बना उसे सहेजने की ही तो मांग कर रहे स्वामी निगमानंद लेकिन न उनके जीते जी और न मरने के बाद सरकार को नदियों को और उनके जल को सहेजने की कोई सुध आयी। अहिंसा के बल पर अंग्रेजों को देश से निकालने वाली यह भारत भूमि इसी अंहिसा और सत्याग्रह के कारण एक गंगापुत्र की मृत्यू की गवाह भी बनी, सरकार अब जांच कर रही है लेकिन नतीजा कब आयेगा कोई नहीं जानता। निगमानंद जिस समय देश की जनता के लिए अपने जीवन को होम कर रहे थे उस समय सरकार को उनकी सुध भी क्यों आती क्योंकि सरकार उस वक्त देश की जनसंख्या के एक फीसदी से भी कम हिस्से वाले उन लोगों की चिंता में लीन थी जिन्होंने कालेधन का अकूत भंडार इकट्ठा कर रखा था और तैयारी में जुटी थी इस सम्पदा को देश में वापस लाने की मांग करने वालों से बल पूर्वक निपटने की।
    04 जून 2011 की तारीख तो याद ही होगी.....और याद होगा दिल्ली का रामलीला मैदान, जहां आधी रात में सोते हुए निहत्थे महिला-पुरुषों-बच्चों पर टूटा था पुलिसिया कहर। फिर से आरोप वही- शांति व्यवस्था भंग होने का खतरा लेकिन किससे और क्यों। उन लोगों से जो मांग कर रहे थे कालेधन को देश में वापस लाने और उसे संग्रहित करने वालों के खिलाफ कार्रवाई की, या फिर उन उन धनपशुओं की नाराजगी की जिनके चंदे पर ही सरकार चलाने वाली राजनीतिक पार्टिया अपना गुजारा करती हैं जो उन्हें कतई मंजूर न था। रामदेव भले ही अब आरोपों के घेरे में हों लेकिन उन्होंने जो आवाज और मांग उठाई थी निसंदेह कोई भी देश भक्त उसका समर्थन करने से इन्कार नहीं कर सकता। रामदेव तो अपनी जान बचाकर रावणलीला के मंचन के बाद भाग खड़
    हुए लेकिन मैदान में डटे रहे हजारों सत्याग्रही बापू के अनुयायी।
    इनमें से एक थी राजबाला.. जी हां राजबाला, गुडगांव की रहने वाली इस वीरांगना का दोष बस इतना था कि यह भी कालेधन के खिलाफ रामलीला मैदान में मोर्चा संभाले हुए थी। पुलिस और सरकार कहती है कि कहीं कोई अत्याचार नहीं किया किसी आंदोलनकारी के ऊपर, नहीं चलाईं कहीं कोई लाठी लेकिन क्या कोई बतायेगा कि राजबाला की रीड की हड्डी कैसे टूटी और कैसे पहुंची वह मरणासन्न अवस्था में। दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल में पड़ी वो कैसे, क्यों और किसकी वजह से मौत को मात देने के लिए खुद से जूझ रही है ? क्या सरकार या उसका कोई ठेकेदार अब भी कहेगा कि गांधी जी का रास्ता चुनो हम सुनेंगे तुम्हारी बात।
    हुजूर सरकार के पास हमेशा एक रटा-रटाया जवाब मौजूद रहता है और वह यह कि इन सभी आंदोलनों से शांति भंग की संभावना थी या फिर वास्तविक परिस्थितियों का उन्हें पता ही नहीं था इसलिए जिन लोगों ने(पुलिस) यह बर्बर कार्रवाई की है हम उन्हें नहीं बख्सेंगे। जब सरकार सोती रहेगी, ए राजा और कलमाड़ी जैसे भ्रष्ट लोगों को बचाने में ही जुटी रहेगी तो भला उसे इन जन आंदोलनों की गूंज कहां सुनाई देगी और ना ही समय पर स्थितियों को सुधारने की सुध आयेगी।
    यह जनआंदोलन तो महज एक बानगी भर थे सरकार के रवैये की। यदि सरकार की विरोधाभाषी नीतियों को समझना हो तो कश्मीर के मुद्दे पर एक बार जरूर नजर डालनी होगी। सवा सौ करोड़ लोगों की रोजी-रोटी, घर-मकान, रोजी-रोजगार और विकास का जिम्मा संभालने वाली केन्द्र सरकार मुम्बई में आतंकी हमला होने पर कहती है कि इन्हें नहीं रोका जा सकता क्यों क्योंकि उसकी मंशा ही नहीं है इन्हें रोकने की। कसाब की रखवाली और सुरक्षा पर करोड़ों खर्च करने से नहीं हिचकती और तो और संसद पर हमला करने वालों को फांसी दिये जाने से यह कहती हुई बचती है कि कश्मरी में सुरक्षा व्यवस्था को खतरा पैदा हो जायेगा, उस कश्मीर में जिसमें पन्द्रह अगस्त को तिरंगा फहराने तक की हिम्मत सरकारी मुलाजिम नहीं जुटा पाते। जो सरकार महज 8,639 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को ठीक से संभाल नहीं सकती और तो और आजादी के दिन राष्ट्र ध्वज तिरंगा फहराने के लिए महज 31,34,904 लोगों पर नियंत्रण नहीं कर सकती वह आखिर कर क्या सकती है सिवाय जन आंदोलनों को बर्बरता से दबाने के।
    हां ऐसी सरकारें एक काम और कर सकती हैं भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना को गिरफ्तार करके जेल जरूर भेज सकती है क्योंकि वो शर्मिला इरोम, स्वामी निगमानंद और राजबाला की तरह बापू के पद चिन्हों पर अहिंसा और सत्याग्रह का व्रत लिये हुए हैं, इनके हाथ में तिरंगा न फहराने देने वाले लोगों की तरह हथियारों की धमक नहीं हैं जो सरकार को हमेशा सुनाई देती है।
    बाबा अन्ना ने इसी धमक को सुनाने के लिए पहले जंतर-मंतर पर डेरा डाला और फिर राजघाट पर। सरकार चला रहे लोगों ने उन पर न जाने कितने आरोप लगाये, कीचड़ उछाले, यहां तक कि डराया धमकाया भी लेकिन अन्ना नहीं डरे क्योंकि वह शर्मिला इरोम, स्वामी निगमानंद या राजबाला की तरह एकाकी नहीं थे। उनके साथ था इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी से उतार फेंकने वाला वकील शांति भूषण,  उनके साथ थी बीच सड़क पर खड़ी प्रधानमंत्री की कार को खिंचवाकर थाने भिजवा देने वाली खाकी की थाती क्रेन बेदी.... जी हां किरण बेदी को लोग इसी नाम से पुकारने लगे थे,  उनके साथ था देश को सूचना के अधिकार का हथियार दिला देने वाला मनीष सिसोदिया, उनके साथ था जनता को लड़ाई के लिए तैयार कराने वाला पूर्व प्रशासनिक अधिकारी अरविंद केजरीवाल और उनके साथ था आंध्रप्रदेश में नक्सली आजाद का साथी बताकर मारे गये पत्रकार हेमंत की विधवा को न्याय दिलाने की जंग लड़ने वाला प्रशांत भूषण...जिसने पूरे मुकद्दमे का एक पैसा नहीं लिया और न जाने ऐसे कितने लोगों की कानूनी मदद की और हां उनके साथ थी देश की युवा पीढ़ी जो भ्रष्टाचार को किसी भी कीमत पर अब एक पल भी सहने के लिए तैयार नहीं है। 
    देश को पहले विदेशी आक्रमण के लिए एकजुट करने वाले महागुरू चाणक्य ने कहा था कि जब लोग अपना इतिहास भूल जाते हैं तो आने वाला इतिहास उन्हें भी भुला देता है। राजनीति की रोटियां सेकने वाली कांग्रेस राजनीति के महापुरोधा की एक छोटी सी बात को याद न रख सकी और भूल गयी अपना इतिहास जहां उसने अहिंसा और सत्याग्रह के बूते ही इस देश को आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था और उसी की एवज में हांसिल की थी हिन्दुस्तान में पीढी दर पीढ़ी सत्ता। जब उन गोरों के बूटों और बटों को सत्याग्रहियों ने देश से बाहर का रास्ता दिखा दिया था तो अपनी ही सरजमीं पर खड़ी दंभी और अंधी सत्ता को हमेशा-हमेशा के लिए मिटाना कौन सी बड़ी बात है। जहां भी होगी बापू की आत्मा जरूर जार-जार रो रही होगी।

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