अरे भाई सुनो…. क्या रेशमा रंगरेज को जानते हो..... अरे दो पल ठहरो तो सही .. जिससे भी पूछो यह सवाल, हर कोई झल्ला कर एक ही जवाब देता है..... देश अन्ना के रंग में रंगा है और तुम रंगरेज को तलाश रहे हो.... नहीं जानते लोग उस रेशमा को जिसे में तलाश रहा हूं..... आखिर भेड़ बनी यह भीड़ जानेंगे भी कैसे ? उनके अंदर की रेशमा मर जो गयी है... उन्हें तो बस चरवाहों की चीख का पीछा करने की आदत हो गयी है ... जिधर हांको उधर ही चल पड़ती हैं.....
यह लानत यूं हीं नहीं है .... अधिकारों की भूख से तो हर कोई तड़पता मिल जाता है लेकिन कर्तव्यों की बेदी पर खुद को हवन करने वालों का हर ओर टोटा जो है...फिलहाल देश में क्रांति आयी हुई है ... माहौल बना है भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष का... मांग उठी है एक कानून बनाने की ... लेकिन इन भेड़ों के सामने एक सवाल भी मुंह बांये खड़ा है ..... जो मांगता है इस भीड़ से जवाब कि कितने लोग हैं यहां, जो अब तक बने कानूनों का पालन करते आये हैं... या फिर उन्होंने क्या कभी नहीं तोड़ा कोई कानून...सबके सब मौन साध लेते हैं.... नहीं तो भीड़ के खिलाफ भाषण देने पर पत्थर उछालने लगते हैं.... सरकार का साथ देने का आरोप तो पुराना हो चुका.... आखिर बात उनके अधिकारों की जो है...
कर्तव्यों की बात करेंगे तो फिर सन्नाटा ही पसर जायेगा...ऐसा सन्नाटा जो अपना नेता चुनने के वक्त यानि चुनावों के दिन शहर की गलियों में पसरा होता है... देश गाली दे रहा है नेताओं को ... उन्हें भ्रष्टाचार की जननी से लेकर देश के लिए कोढ़ तक बताने से नहीं चूक रहा है कोई .... लेकिन एक बार फिर वही सवाल आकर खड़ा हो जाता है बीच में...... आखिर किसने चुना इन्हें... किसने दिया अधिकार सेवक से शासक बनने का... किसने दी आजादी भ्रष्टाचार का नाला बहाने की... उन 60 फीसदी भेड़ों ने ही किया है ना यह कुकृत्य जो अधिकारों की मांग पर तो चीखने लगती हैं लेकिन मतदान के कर्तव्य को भुला... उस दिन को छुट्टी का दिन बता .... किचिन में पकौड़े तलने की मांग करने लगते हैं..... या फिर गुजार देते हैं पूरा दिन नींद का ढ़ोकला बनाने में.......
छोड़ो भी यार मैं कहां रेशमा को ढूंढ़ते हुए ढ़ोकला पर पहुंच गया .... अरे ढ़ोकला से याद आया यहीं कहीं अहमदाबाद की ही तो रहने वाली है वो..... बहुत तलाशा उसे लेकिन नहीं जानता उसे कोई पूरे अहमदाबाद में ....आखिर क्यों याद रखें उसे यहां के लोग...गुजरात गोधरा की गंध को अभी भुला नहीं पाया है इसलिए नयी यादें सजोने की हिम्मत नहीं है उसमें...
तो फिर क्यों न उसकी गुमशुदगी दर्ज करा दूं मैं,.... पुलिस तो तलाश ही लेगी ना... यही सोच कर जब थाने की सीढ़ियां चढ़ी तो सामने ही दिख गयी मेरी रेशमा... कहीं कौने में कंपकंपाती .... पूछा, क्यों इतनी डरी हुई हो.... तो जवाब आया सरकारी नौकरी देने का वायदा किया था सुनहरे गुजरात ने .... लेकिन लगता है थाने में गलत चिठ्ठी आ गयी जिसके चलते गूगल बना डाला इन लोगों ने मुझे... न जाने क्या क्या खोज रहे हैं मेरे बीते कल और आज में..... मेरे पास दिलासा देने के सिवा कोई और चारा न था ... करता भी क्या आतंवादी की पत्नी जो थी... उसी आतंकवादी शहजाद की पत्नी जिसे मासूमों के खून की होली खेलने से रोका था रेशमा ने .... पहले समझाया था नहीं समझा तो भारतीय नागरिक होने का कर्तव्य निभाते हुए पुलिस के हाथों में सोंप दिया था उसे.... नौ बम मिले थे शहजाद से पुलिस को ... अगस्त महीने में अहमदाबाद की रथयात्रा को शव यात्रा में बदलना चाहता था वो.... लेकिन मेरी रेशमा थी जो बिल्कुल नहीं पसीजी... और ना ही उसने परवाह की अपने तीन मासूम बच्चों की जिनके लिए रोटी-कपड़े का इंतजाम करने वाला कोई दूसरा न था... और ना ही चिंता की थी उसने आतंकी की पत्नी का धब्बा लगने की ... उसने चिंता की थी तो बस अपने कर्तव्यों की और रथयात्रा में शामिल होने वाली मासूम जानों की जिनसे उसका कोई वास्ता न था....
चलो अब मेरे चलने का वक्त आ गया है रेशमा ने तो अपना कर्तव्य बखूबी निभा दिया... अब उसके परिवार को सहारा देने का मेरा कर्तव्य मुझे पुकार रहा है ... वो बेचारी अधिकार भी तो मुझ हिन्दुस्तानी पर ही जता सकती है .... क्योंकि भेड़ों की इस भीड़ में उसे चंद सिरफिरों के सिवाय कोई जानता ही नहीं.... जानेगा भी कैसे अधिकारों के लिए थोड़े लड़ी थी वो..... कर्तव्यों का पालन करते हुए घर फूंका था उसने..... मोहल्ले में रोशनी करने को जला दिया घर अपना ही .... रेशमा तुम्हें कोटि-कोटि प्रणाम।
ye sarkare kisi bhi party ki ho sabhi logo ko bevkoof banati hai. ye neta aur naukarshah logo ke saath khel kar rahe hai. in logo ke dil nahi hota.
जवाब देंहटाएंजाने कैसे इस ब्लॉग तक पहुँच गई...अगर न पहुँच पाती तो रंज होता.. नींव की ईंट जैसी रेशमा की सलामती की दुआएँ......
जवाब देंहटाएंताज्जुब नहीं है की गुजरात को बस गोधरा ही याद है उसके बाद चला चार साल का नरसंहार नहीं! और हो भी क्यों ???? जहाँ इशरत शहजाद नाम के लोग आतंकवादी कहे जाते हों! चोर और डाकू भी आतंकवादी काहे जाते हों वहां इस रेशमा को कौन पहचानेगा.............रेशमा अकेली या पहली औरत नहीं है उसने बस अपनी परंपरा निभाई है! हो सके तो कभी सवाल उठायें की गोधरा के दोषियों को सजा तो मिल गयी अब चार साल के दंगे की शिकार हुयी हजारों रेश्माओं को भी इन्साफ मिले (वैसे हमें यकीन है की आप ना तो ये सवाल उठाएंगे और ना ही दंगाईयों को सजा मिलेगी आज़ाद भारत के इतिहास में ऐसा कभी हुआ ही नहीं ) हम अपने जिगर के खून से इस देश की नीव को हमेशा सींचते रहेंगे और इसका इनाम हमें आतंकवादी गद्दार बाहरी कह के मिले तो रब की यही मर्ज़ी
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