...राजे तो नहीं रहे, लेकिन राज स्थान अब भी मौजू है... बांके जवान की
तरह, आन और बान के साथ शान से सीना ताने। महज जिस्म से ही नहीं, जिगर और जज्बे के
साथ हर क्षण जीवंत... मेरे पुरखे इसी माटी में जन्मे और यहीं खाक हुए, लेकिन
पृथ्वी की क्षमा और महाराणा की मर्यादा ने सात पीढ़ी पहले उन्हें मीरा के असीम
प्रेम की दुहाई दे कान्हा के बृज में बसने को प्रेरित कर दिया। जहां रण की रज के
साथ प्रेम और आस्था की माटी के मिलन से आठवीं पीढ़ी की शुरुआत हुई मुझसे। पैदाइश
के बाद तमाम मर्तबा रणबांकुरों की सरजमीं को सलाम करने का मौका मिला। मेरी आवारगी
बार-बार मुझे इस और खींचकर लाती, लेकिन चंद लम्हे ढंग से गुजर पाते उससे पहले ही
रवानगी का पैगाम आ जाता।
साल 1994 से शुरू हुई यह जद्दोजहद 21 साल के बाद मुकम्मल
हुई। मेरी आवारगी ने भी राजपूताना में आमद का ऐसा दिन चुना कि एक और नवसंवत्सर का
पहला दिन महाराज विक्रमादित्य की न्यायप्रियता को नमन कर रहा था और दूसरी ओर वीर
क्षत्राणी पन्ना ध्याय की गर्बीली कुर्बानी के आगे नतमस्तक था, 19 मार्च। हालांकि मेरा
कुछ सामान पांचाली के देश में छूट गया था। जिसे समेटने में पूरे दस रोज हवा हो गए।
बावजूद इसके सालों से सवालों की फेहरिस्त थामे खड़े तमाम यक्ष राह रोकने पर अमादा
थे, लेकिन जब उन्हें अपने हर सवाल का जवाब मेरे पास दिखने लगा तो सवालों का भरम
टूटने के डर से उन्होंने मुसाफिर बता मेरी डगर छोड़ना ही बेहतर समझा।
30 मार्च
राजस्थान दिवस, जज्बे और जिम्मेदारी से लबरेज मेरी आवारगी की नई सुबह। जहां मेरा
इस्तकबाल हुआ चार बोतल बोदका और मुन्नी को बदनाम करने में जुटी शीला की जवानी के
बजाय, प्रेम और विश्वास के अथाह समंदर में लाइट हाउस बन खड़े हुए गणेश के बंजारों,
पंकज के मशक और संतोष के अलगोंजा ने। लोक देव तेजाजी के ओज से सराबोर युवा जोश को
हरिहर की भंवरी में डूबा देख एक बारगी तो सहसा यकीं हो चला कि मेरी आवारगी मुझे
परदेश खींच लाई है, या यूं कहूं कि अब तक कुछ जीया ही नहीं। जिंदगी तो अब शुरू हुई
है... दुनिया के रेगिस्तान में... अब थम जा मेरी आवारगी... मेरे राजपूताणे
राजस्थान में।।
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