'डिजिटल इंडिया युग' या ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी'
दिल्ली
दरबार ने जोश-ओ-खरोश के साथ 'डिजिटल इंडिया' युग के आगाज का ऐलान कर दिया... दावा
तो देश की दिशा और दशा बदलने का भी किया गया... साथ में एक प्रलोभन भी परोसा
गया... बेरोजगारी खत्म कर 18 लाख से ज्यादा नई नौकरियां मुहैया कराने का...बाजार
तो जैसे इसी दिन के लिए बेजार हुआ बैठा था... नए युग के मसीहाओं की महफिल में पलक
झपकते ही 250 अरब रुपये न्यौछावर कर डाले...
जश्न
के बीच एक आवारा सवाल भी उछल पड़ा... सर्वर अगर बाहर है तो रोजगार यहां कैसे
मिलेगा? यहां के लोग उस इंस्ट्रूमेंट का उपयोग कैसे करेंगे? उसे
उपयोग करने का क्या उद्देश्य और क्या दिशा होगी.. लोगों को तकनीकि के इस्तेमाल
लायक साक्षर और सक्षम नहीं बनाया तो इसका इस्तेमाल कैसे होगा... और आखिरी सवाल यह
कि इस ख्वाब को साकार करने के लिए तो आम आदमी को जेब ढ़ीली करनी ही पड़ेगी ऐसे
में इस विजन का असल फायदा किसे होगा?
मौके-बे-मौके
मुनाफा वसूलता रहा विपक्ष खामोशी ओढ़ बैठा... और सत्ता पक्ष घमंड की सीमा पर दस्तक
दे रहे आत्मविश्वास में डूब गया...बाकी जातीय आंकड़ों का अंकगणित सुलझाने में उलझे
रहे... भावी भविष्य की कामयाबी की दुआओं के शोर तले दबे इन सवालों पर सिर्फ एक
शख्स ने जवाब देने की हिम्मत जुटाई... भाजपा को राष्ट्रीय फलक का चांद बनाने वाले
चकोर, थिंकटेंक, अर्थशास्त्री और सिद्धांतकार... जी हां सही पहचाना आपने बनारस
हिंदू विश्वविद्यालय के स्नातक के.एन. गोविंदाचार्य.
तमाम
सवालों का जवाब उन्होंने महज तीन शब्दों में दे डाला... बोले, जनाब यह कुछ भी
नहीं... सिवाय 'ट्रिकल डाउन थ्योरी’ के। सालों पुराना वही बाजारू
सिद्धांत... पूंजिपतियों की जेबें भरने के लिए इस्तेमाल होने वाले ललचाऊ
ब्रह्मास्त्र...लोगों को सुधार के सब्जबाग दिखाओ... निवेशकों के साथ टयूनिंग बनाओ
और सत्ता का मजा लो... न रोटी की बात होगी, ना रोजी की और ना ही असल जिंदगी के
मुस्किलात की... आखिर इतने गंभीर मुद्दों पर सोचने के लिए होश-ओ-हवाश की जरूरत
होती है... जब जनता नींद से जागेगी... सुनहरी ख्वाब हकीकत के धरातल से टकराएगा...
तब तक मंदिर, मस्जिद, जात-बिरादरी और पड़ौसी मुल्कों के हौव्वे समेत तमाम
भावनात्मक मोर्चे खुल चुके होंगे... अगले पांच साल के लिए फिर से सुलाने को।
क्योंकि...दुनिया
भर में पहले ही साबित हो चुका है कि ट्रिकल डाउन थ्योरी का जब-जब इस्तेमाल हुआ
है... आतंक बढ़ा है, तनाव बढ़ा है, गैर-बराबरी बढ़ी है, अपराध बढ़े हैं और इससे प्राकृतिक विध्वंस भी जबरदस्त हुआ है. ऐसे में
भारत में यह थ्योरी कैसे सकारात्मक प्रभाव डालेगी ? गोविंदाचार्य
सीधे तौर पर आरोप लगाते है कि ‘मोदी सरकार इस 'डिजिटल इंडिया' विजन को कॉरपोरेट के नजरिए से देख रही है और यह विजन आम आदमी की जरूरतों
से मेल नहीं खा रहा है। क्योंकि सरकार निवेशकों के साथ ट्यूनिंग कर रही है ना कि
लोगों के साथ.’ वह यहीं नहीं रुकते।
आगे कहते हैं कि ‘सरकार की नीतियों और प्राथमिकताओं में समझ की भारी कमी है. ‘डिजिटल इंडिया’ की महफिल में जो चेहरे थे, वही सरकार
के दिलो-दिमाग में बसते हैं... तो फिर आम आदमी की जरूरत और उसकी प्राथमिकता सरकार
को कैसे नजर आएगी.’ ‘इस विजन में हमारे देश के युवाओं
लायक काम कहां हैं? सिर्फ
घोषणाएँ कर देने से कुछ नहीं होता. जब तक कि सरकार के पास अच्छी नीतियों के साथ
उन्हें लागू कराने वाला विजन और तंत्र न हो. जिन 238 जिलों में पानी में फ्लोराइड और आर्सेनिक मिला है
वहां लोगों की प्राथमिकता पीने का पानी है कुछ और नहीं.'
बुलेट
ट्रेन चलाओ, लेकिन पहले ट्रेनों की आंतरिक और वाह्य सुरक्षा के इंतजाम तो पुख्ता
करो. स्टेशन पर पीने को पानी नहीं... ट्रेक का दम फूल रहा है... अनारक्षित कूपों
में तिल रखने को जगह नहीं...स्टेशन पर पीने तक का पानी खरीदना पड़ रहा है... और
इससे भी बड़ी बात कि भावी डिजिटल कंट्री के 32 फीसद गांवों में तो बिजली तक नहीं
पहुंच सकी है...ऊपर से 48 फीसद आबादी न अंग्रेजी पढ़ सकती है और ना ही हिंदी लिख
सकती है... रही जेब की बात तो उसमें लगे पैबंदों की पोल तो आर्थिक जनगणना के आंकडे
ही खोल दे रहे हैं...
जनगणना 2011 के आंकड़ो के मुताबिक देश में शहर और गांव दोनों को मिलाकर कुल 24.39 करोड़ परिवार हैं.
इनमें से 73 फीसदी यानि 17 करोड़ 91
लाख परिवार गांवों में रहते हैं और सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात ये
है कि इस ग्रामीण आबादी में 49 फीसदी यानि 8 करोड़ 69 लाख परिवार गरीबी की जिंदगी जीने के लिए
अभिशप्त हैं। मतलब गांव में बसने वाली देश की आधी आबादी के पास आज भी दो वक्त की
रोटी मयस्सर नहीं। ऐसे में गलती से उसके हाथ डिजिटल हथियार इंटरनेट लग भी जाता है
तो वह ज्यादा से ज्यादा एक ही काम कर
सकेगा... जिंदगी के बचे-खुचे पलों को पोर्न
के आनंद में डुबाने का निर्थक प्रयास। इस काम के लिए उसे प्रशिक्षण की आवश्यक्ता
नहीं है और जिंदगी को सुधारने लायक डिजिटल संसाधनों के इस्तेमाल की सीख देने की
सरकार को न तो कोई फुर्सत होगी और ना ही इंतजाम। बहरहाल, वो टेलीफोन कंपनियों का
ग्राहक पक्का वाला बन चुका होगा। दारू, भांग और सिगरेट की तरह एक नया व्यसन उसे
दीमक की तरह चाट जाएगा।
ट्रिकल डाउन थ्योरी
‘ट्रिकल डाउन’ थ्योरी के मुताबिक़ आर्थिक विकास से
अमीरों की आय बढ़ेगी, तो गरीबों का भी फायदा होगा जो कि इस
विकास की प्रक्रिया में सीधे तौर पर नहीं जुड़े हैं.
लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा
कोष ने 150 विकासशील देशों के अंदर कई दशकों तक
अध्ययन करने
के बाद यह मान लिया है कि अमीरों से गरीब तक
पैसे के पहुंचने की ट्रिकल डाउन
थ्योरी गलत है. इसी साल जारी एक रिपोर्ट में
आईएमएफ ने कहा है कि इससे अमीर
और
अमीर होते जाते हैं और गरीब वहीं टिका रह जाता है.
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