• यूं ही नहीं बनता कोई ऑल इंडिया टॉपर...


    कोटा के कोचिंग संस्थानों ने बीते डेढ़ दशक में 40 हजार से ज्यादा आईआईटीयंस और छह ऑल इंडिया टॉपर्स यूं ही नहीं दिए। इसके पीछे छिपी है शिक्षकों की जी-तोड़ मेहनत। देश भर से आए सोने को कुंदन बनाने के लिए रोजाना 15 से 16 घंटे तक चलने वाली तपस्या और कुछ नया कर गुजरने की चाहत। जो आम बच्चे को भी खास बना देती है। 

    करीब दो दशक पहले कोटा में कोचिंग की नींव जेके सिंथेटिक में काम करने वाले इंजीनियर यानी बंसल क्लासेज के संस्थापक वीके बंसल ने रखी, लेकिन अब उनके नक्शे कदम पर यहां छोटे-बड़े सौ से ज्यादा संस्थान देश भर के ढाई लाख से ज्यादा बच्चों को इंजीनियरिंग और मेडिकल की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करा रहे हैं। इन संस्थानों में फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथ के विशेषज्ञ शिक्षकों की बात तो छोडि़ए 450 से ज्यादा आईआईटीयंस भी कक्षाएं ले रहे हैं। जिसके लिए देश के सबसे प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़ाई करने के बाद भी यह आईआईटियंस छात्रों को डेढ़ घंटे की क्लास देने के लिए कम से कम चार घंटे रोजाना खुद पढ़ते हैं। 


    हर दिन एक नया सबक
    बंसल क्लासेज के संस्थापक वीके बंसल कहते हैं कि फेकल्टी कितनी भी पुरानी और ज्ञानी क्यों न हो, लेकिन टॉपर्स तैयार करने के लिए उसे रोजाना नया सबक सीखना पड़ता है। आईआईटी जैसे राष्ट्रीय संस्थानों की प्रवेश परीक्षाओं में कुछ भी पुराना रिपीट नहीं होता। इसलिए फेकल्टी को हर रोज नई चीजें सीखनी पड़ती है। किसी भी टेक्स्ट बुक में एक-दो चेप्टर से ज्यादा काम के नहीं होते। इसलिए फेकल्टी को रोजाना दुनिया के टॉप रैंक यूनिवर्सिटीज में पढ़ाए जाने वाले स्टडी मटेरियल, रिसर्च पेपर और इंटरनेशनल बुक्स पढऩे पड़ते हैं। इंटरनेशनल रिसर्च के जरिए खुद को रोजाना अपडेट करना होता है। वह कहते हैं कि 'मैं खुद अब भी चार से पांच घंटे पढ़ता हूं, तब जाकर एक लेक्चर तैयार करता हूं और लेक्चर देने से पहले मॉक डिलेवरी करता हूं ताकि अपनी गलतियों को सुधार कर बच्चों को अपना सबसे बेस्ट दे सकूं।

    बच्चे का लेवल देखते हैं

    आईआईटी वाराणसी से बीटेक करने वाले मोशन इंस्टीट्यूट के निदेशक नितिन विजय कहते हैं 'हमें सबसे पहले पता करना होता है कि बच्चे को क्या आता है? वह कहां खड़ा है? प्रतियोगी परीक्षा में सफलता हासिल करने के लिए उसे स्कूली सिलेबस से कई गुना ज्यादा अपडेट स्टडी करनी होती है। इसलिए उसके स्तर की पहचान करने के बाद पढ़ाई का प्रॉपर प्लान बनाना पड़ता है। पुराने पेपर या स्टडी मटेरियल रटाने के बजाय नई-नई प्रॉब्लम्स और सवाल खुद तैयार करके बच्चों के सामने रखते हैं। तब कहीं जाकर बच्चा टॉपर्स बनने के लिए तैयार होता है।

    सेल्फ स्टडी जरूरी
    आईआईटी खडग़पुर से बीटेक करने के बाद एलेन कोचिंग में पढ़ा रहे वैभव झांवर कहते हैं कि आईआईटीयंस को पढ़ाई के मामले में सफलता इसलिए मिली, क्योंकि उन्होंने खुद प्रतियोगी परीक्षाओं का सामना किया और उसके बाद पढ़ाई में आई मुश्किलों को भी अच्छे से समझते हैं। एक फेकल्टी कम से आठ घंटे बच्चों को पढ़ाती है और उसके बाद भी खुद कम से कम चार घंटे रोजाना सेल्फ स्टडी करती है, ताकि बच्चा क्लास में कुछ पूछे तो उसे मौके पर ही जवाब मिल सके। बच्चों को पढ़ाने के लिए कम से कम 16 घंटे देने ही पड़ते हैं।

    परिवार की मदद अहम
    आईआईटी मुम्बई से पढ़ाई करने के बाद करियर पाइंट में पढ़ा रहे ओम शर्मा कहते कि टॉपर्स तैयार करने के लिए फैकल्टी के साथ-साथ उसका परिवार भी बड़ा योगदान देता है। लगातार चलने वाली पढ़ाई से घर-परिवार के लिए सिर्फ सोने और खाने-पीने का ही समय मिल पाता है, लेकिन कभी कोई शिकायत नहीं होती। बल्कि उन्हें सुकून होता है कि हम देश के सबसे बेहतर छात्र तैयार कर रहे हैं। एक तरह से कहें तो कोचिंग में पढऩे वाले बच्चे ही हमारा परिवार बन जाते हैं। हालांकि संडे के बाद दिवाली की छुट्टियों का खास तौर पर इंतजार रहता है।

    एक सवाल हल करने के पांच तरीके बताते हैं
    आईआईटी मुम्बई से पढ़ाई पूरी करने के बाद रेजोनेंस में पढ़ा रहे फेकल्टी चंद्रशेखर शर्मा बताते हैं कि सफलता का यूं ही नहीं मिलती। एक नया सवाल तलाशने के बाद उसे हल करने के चार से पांच अलग-अलग तरीके बताए जाते हैं। अलग-अलग शिक्षक अपने-अपने तरीके से प्रॉब्लम सॉल्व करने का तरीका बताते हैं, ताकि बच्चा अपनी सुविधानुसार कोई भी एक मैथड इस्तेमाल कर उस समस्या का आसानी से समाधान करना सीख जाए। सबसे ज्यादा फोकस कांसेप्ट को शॉर्ट करने पर होता है, ताकि कम समय में ज्यादा से ज्यादा चीजें बच्चों को सिखाई जा सकें। यही चीज कोटा के कोचिंग संस्थानों की पढ़ाई को देश के दूसरे संस्थानों से अलग बनाती है और टॉप रैंक हासिल करने में बच्चों के लिए मददगार साबित होती है।

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