बड़ी शिद्दत से मांझा तराशने में जुटा कारीगर उसे धार देने की कोशिश में अपने हाथों को लहूलुहान कर लेता है। उसका यह हुनर इस कदर दर्द देता है कि कई बार नींद तक फना हो जाती है। रोटी का कौर तोड़ने तक में घाव से खून रिस जाता है। बावजूद इसके बरेली के लाखों बाशिंदों ने इस हुनर को अपनी किस्मत बना लिया है। बात कमाई की करें तो, बेपनाह दर्द के बावजूद दो वक्त की रोटी जुटाना तक मुश्किल होता है। बरेली के जिस मांझा की धूम सात समंदर पार तक है उसे बनाने वाला दिन में दो सौ रुपये भी नहीं कमा पाता। हां, बिचौलिए जरूर मोटा मुनाफा कमा लेते हैं। सैकड़ों मांझा कारीगरों की हालत तो इस कदर बदतर हो चुकी है कि अपना नायाब हुनर दिखाने के बदले मिले गहरे जख्मों के इलाज तक का मेहनताना नहीं जुटा पाते। बस, पुश्तैनी धंधे को जिंदा रखने का जुनून ही उन्हें इस काम से जोड़े हुए है। जो कारोबार बचा था उसे अब प्लास्टिक के सस्ते चीनी मांझा और सूती धागे की मंहगाई ने ऐसा बर्बाद किया है कि सैकड़ों कारीगरों को इस पुस्तैनी हुनर से किनारा करना पड़ा। मांझा बनाने की जगह को अड्डा कहते हैं। लकड़ी की दो बल्लियों के बीच सूती धागा(सद्दी) बांधकर उस पर खास मसाले की लुग्दी रगड़ी जाती है। इस काम में दो लोग लगते हैं। एक लुग्दी रगड़ने वाला कारीगर और एक सद्दी को टांगने वाला और उसे उतारने वाला सहायक। दो लोग मिलकर दिन में दो चर्खी मांझा तैयार करते हैं।
दो वक्त की रोटी के पड़े लाले....
लहू से सींचकर कारीगर जिस मांझा को धार देता है वही मांझा उसे दो वक्त की रोटी तक नहीं दे सकता। हालत यह है कि खुद का धागा खरीदकर कारीगर सुबह से लेकर रात तक हाड़ तोड़ मेहनत करता है उसके बदले में उसे महज 150 से 180 रुपए तक की कमाई हो पाती है। वहीं ठेके पर काम करने वाले मजदूरों को पूरे दिन हाड़तोड़ मेहनत करने के बावजूद महज सौ रुपये ही मिल पाते हैं। मांझा बनाने के एक अड्डे पर एक साथ दो लोग काम करते हैं। पहला मांझा कारीगर और दूसरा उसके साथ डोर उतारने वाला कारीगर होता है। पहला और आखिरी काम सहायक का ही होता है। सबसे पहले वह अड्डे पर डोर तानता है और आखिर में मांझा सूखने के बाद यह कारीगर उसे बिना उलझाए उतारता भी है। इस कारीगर को खासी मेहनत करनी पड़ती है, जिसके बदले वह 50 से 90 रुपए ही कमा पाता है। जिससे परिवार का पेट पालना नामुमकिन है।
शहर में पतंग और मांझा बेचने की वैसे तो लगभग डेढ़ सौ दुकानें हैं लेकिन आधा दर्जन ही बड़े कारोबारी हैं, जो कारीगरों से मांझा खरीदने का काम करते हैं और उसके सैंपल लेकर बाहर भिजवाते हैं। ज्यादातर कारीगर इन्हीं कारोबारियों पर निर्भर होते हैं। जसौली, साहूकारा, मलूकपुर, बाजार संदल खां और सुनहरी मस्जिद इलाके में थोक के व्यापारियों का राज चलता है।
झेलनी पड़ रही है दोहरी मार
मांझा कारोबार दोहरी मार का शिकार है। एक लड़ाई उसे सस्ते चीनी मांझे से लड़नी पड़ रही हैं। वहीं दूसरा मुकाबला मंहगाई से करना पड़ रहा है। मंहगाई का आलम यह है कि जो सूती धागे की डबल रील पांच साल पहले 180 से लेकर दो सौ रुपये तक की पड़ती थीं, उनके लिए अब करीब साढ़े चार सौ रुपये चुकाने पड़ते हैं। वहीं तीन धागे वाली रील अब पांच सौ के करीब पड़ती है। ऊपर से आलम ये कि स्थानीय कारोबारी माल भी औने-पौने दाम पर खरीदना चाहते हैं।
दुनिया में बरेली की खास पहचान कायम करने वाली इस नायाब कला का कोई कद्र दान नहीं। सरकार तो बिल्कुल भी नहीं। कहने के लिए यह कुटीर उद्योग कपड़ा और वस्त्र उद्योग मंत्रलय के अधीन आता है, लेकिन इसके लिए कोई भी विशेष सहायता योजना आज तक नहीं बनी। धंधे के लिए ऋण और कारीगरों के लिए बीमा योजना का तो सवाल ही नहीं उठता। जब तक इस कारीगरी को उद्योग का दर्जा नहीं मिलेगा और विशेष योजनाएं नहीं बनाई जाएंगी तब तक इस कारीगरों की स्थिति नहीं सुधरेगी।
छह साल पहले साल 2008 का मंजर आए दिन आंखों में तारी होता है। पांच साल की बच्ची को अपनी बाइक पर आगे बिठाकर घर जा रहा पिता जैसे ही किला पुल पर आगे बढ़ने लगा, हवा में उड़कर आए मांङो ने उसकी बेटी की गर्दन रेत डाली। बाप को तो खबर ही नहीं लगी कि कब उसकी बेटी का उसी की गोद में बड़ी खामोशी के साथ कत्ल हो चुका था। एकाएक जब बच्ची टंकी पर गिरी तो बाप के होश फाख्ता हो गए। उसने बच्ची को उठाया तो वह खून से लथपथ थी और उसका गला चायनीज मांझा रेत चुका था। बाप चीख पड़ा और बाइक समेत सड़क पर ही गिर गया। राह चलते लोगों का मजमा जुट गया। कुछ युवक आगे आए और बच्ची को गोद में उठा अस्पताल की ओर दौड़ पड़े, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। मासूम काल के गाल में समा चुकी थी। सरेराह हुए कत्ल-ए-आम से हर कोई हैरान था।सरकारी सेवा में कार्यरत राजेश और उनकी पत्नी इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सके और उन्होंने इस शहर से ही तौबा कर ली। अब वह नोयडा में बस चुके हैं। दो बच्चे भी हुए, लेकिन जब भी पतंग उड़ती देखते हैं, छह साल पुराना वो मंजर उनकी आंखों में तारी हो उठता है। न बच्चों को पतंग उड़ाने देते हैं और न मांङो को छूने। बस उन्हें एक ही बात का गम है कि ‘खूनी’ मांझा सरेराह बरेली में कत्लेआम कर रहा था और शहर की जनता ही नहीं बल्कि जिम्मेदार लोग भी खामोशी ओढ़े बैठे थे।
आंखों में तारी होता ‘खूनी’ मंजर
छह साल पहले साल 2008 का मंजर आए दिन आंखों में तारी होता है। पांच साल की बच्ची को अपनी बाइक पर आगे बिठाकर घर जा रहा पिता जैसे ही किला पुल पर आगे बढ़ने लगा, हवा में उड़कर आए मांङो ने उसकी बेटी की गर्दन रेत डाली। बाप को तो खबर ही नहीं लगी कि कब उसकी बेटी का उसी की गोद में बड़ी खामोशी के साथ कत्ल हो चुका था। एकाएक जब बच्ची टंकी पर गिरी तो बाप के होश फाख्ता हो गए। उसने बच्ची को उठाया तो वह खून से लथपथ थी और उसका गला चायनीज मांझा रेत चुका था। बाप चीख पड़ा और बाइक समेत सड़क पर ही गिर गया। राह चलते लोगों का मजमा जुट गया। कुछ युवक आगे आए और बच्ची को गोद में उठा अस्पताल की ओर दौड़ पड़े, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। मासूम काल के गाल में समा चुकी थी। सरेराह हुए कत्ल-ए-आम से हर कोई हैरान था।सरकारी सेवा में कार्यरत राजेश और उनकी पत्नी इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सके और उन्होंने इस शहर से ही तौबा कर ली। अब वह नोयडा में बस चुके हैं। दो बच्चे भी हुए, लेकिन जब भी पतंग उड़ती देखते हैं, छह साल पुराना वो मंजर उनकी आंखों में तारी हो उठता है। न बच्चों को पतंग उड़ाने देते हैं और न मांङो को छूने। बस उन्हें एक ही बात का गम है कि ‘खूनी’ मांझा सरेराह बरेली में कत्लेआम कर रहा था और शहर की जनता ही नहीं बल्कि जिम्मेदार लोग भी खामोशी ओढ़े बैठे थे।
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