शायद ही कोई शख्स होगा जो चाणक्य का नाम न जानता हो। तक्षशिला का एक ऐसा शिक्षक जिसने मगध की व्यभचारी और अत्याचारी सत्ता को न सिर्फ अकेले चुनौती दी, बल्कि नंद वंश का अंत कर मौर्य साम्राज्य के नए युग का सूत्रपात किया। ३०० ईसापूर्व दुनिया के सबसे वैभवशाली साम्राज्य का प्रधानमंत्री होने के बावजूद कभी सत्ता का लालच, सुख और सुविधाओं का मोह उसे छू तक न सका। फूस की झौंपड़ी में बैठे-बैठे ही तरुणाई को सकारात्मक दिशा दिखाई और मगध साम्राज्य के वैभव का आधार बनाया। अब न तो चाणक्य हैं और ना ही उन जैसे राष्ट्र भक्त शिक्षक। बावजूद इसके तमाम शिक्षक खुद को उस महान परंपरा पर चलने वाला बताने से नहीं चूकते, लेकिन बात जब फैसलों की आती है तो यह खैराती चाणक्य न तो खुद को दिशा दिखा पाते हैं और ना अपने विश्वविद्यालय और वहां अध्ययन कर अपना और देश का भविष्य तय करने के लिए आने वाली तरुणाई को।
देश की सबसे प्रतिष्ठित और कठिन परीक्षा पास कर हर साल सैकड़ों युवा आईआईटी में प्रवेश लेते हैं, लेकिन दुख की बात है कि इनमें से पांच फीसदी को आईआईटी सिर्फ इसलिए छोडऩा पड़ता है क्योंकि उनकी अंग्रेजी अच्छी नहीं होती। कभी कोटा आकर देखिए आईआईटी की एक सीट हासिल करने के लिए हर साल यहां पढऩे वाले चार लाख बच्चे किस तरह अपना सर्वस्व दांव पर लगाते हैं। ऐसे में पहले रैंक और फिर आईआईटी में प्रवेश हासिल करने के बाद वहां से बाहर निकाले गए इन छात्रों पर क्या गुजरती होगी, कभी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। क्या उन्हें याद नहीं आता होगा प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं में पढ़ाने वाला वह शिक्षक जिसने कभी उन्हें अंग्रेजी पढ़ाने में रुची नहीं ली थी। या फिर उत्तर प्रदेश जैसी वह सरकार जो पढ़ाई की बात तो दूर डिग्रियां तक हिंदी में बंटवाकर खुद की पीठ ठोकने से पीछे नहीं हटती। लानत है ऐसे खैराती चाणक्यों पर जो खुद को नीति का बड़ा ज्ञाता बताते हैं, लेकिन बात जब सत्ता से टकराने की आती है तो हाकिमों को खुश करने के लिए उनके आगे घुटने तक टेक देते हैं।
आखिर वह ऐसा करें भी तो क्यों नहीं। कहने के लिए तो सरकार ने चपरासी से लेकर कुलपतियों तक की नियुक्ति के मानक और मापदंड़ निर्धारित कर दिए हैं, लेकिन जब सारी नियुक्तियां राजनैतिक और मुनाफे के आधार पर होने लगें तो उनकी सुचिता बची ही कहां रह जाती है। एक दिन का प्रोफेसर कुलपति, जिसने कभी शोध कार्य का मुंह तक न देखा हो वह कुलपति। दफ्तर में बैठकर भी जो ईंट और गिट्टियों की सप्लाई का गणित लगाता रहता हो वह कुलपति। जिसे शैक्षणिक नियम तक न पता हों वह कुलपति। जब संस्था प्रधान की नियुक्ति उसकी योग्यता की बजाय राजनैतिक और आर्थिक मुनाफे के आधार पर हो तो उसके निर्णय शैक्षणिक व्यवस्था को सुधारने वाले होंगे इसकी उम्मीद करना तक बेमाएने है। विश्वविद्यालय नाम की संस्थाओं का संचालन भी दुकान या पार्टी दफ्तर की तरह होगा, छात्र और उनका भविष्य जाए भाड़ में। बावजूद इसके खुद को चाणक्य की परंपरा का संवाहक बताने से न चूकने वाले ऐसे खैराती चाणक्यों को धिक्कार। .... और धिक्कार उस सत्ता को जो अपने और अपनी संततियों के स्वर्णिण भविष्य के लिए लाखों युवाओं को अंधकार की गर्त में झोंकने पर अमादा है। वैसे भी जिस मुल्क के वजीर को अपने मन की बात कहने से ही फुर्सत न मिलती हो वह जनता का मन पढ़े भी तो कैसे? हिंदी के उन वकीलों को भी धिक्कार जो इसके पक्ष में दलीलें तो देते रहते हैं, लेकिन बच्चों के लिए मेडिकल और इंजीनियरिंग की एक किताब हिंदी में नहीं लिखवा पाते। बच्चा अंग्रेजी सीख जाएगा तो पाप नहीं कर देगा, बल्कि उसकी जिंदगी बेहद आसान हो जाएगी। दूर दिखती सफलता कुछ नजदीक ही आ जाएगी। राजस्थान में तो वैसे भी लोकतंत्र ही कहां है। सामंती सोच वाली मुख्यमंत्री न सिर्फ खुद को राजपूताने की महारानी समझती हैं, बल्कि वैसा व्यवहार भी करती हैं। तभी तो शिक्षकों के मनमाने तबादले करती हैं और अयोग्य लोगों को कुलपति बनाने से भी नहीं चूकतीं। विश्वविद्यालयों में सीनेट के चुनाव तक नहीं करवातीं सो अलग। मित्र अखिलेश दुख है कि तुम भी अब मजबूर हो गए हो। खुद तो अंग्रेजी के स्कूलों में पढ़कर सत्ता का हर सुख भोग रहे हो, लेकिन वोट देने वाली जनता के बच्चों को भाषा ज्ञान से वंचित रखने की कोशिश में जुटे हो...
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