• राष्ट्रीयता: एक बहस...पुराने अच्छे या ये नए


    देश में कहीं-कहीं राष्ट्रीयता के भाव को समझने में गहरी और भद्दी भूल की जा रही है। आए दिन हम इस भूल के अनेकानेक प्रमाण पाते हैं। यदि इस भाव के अर्थ भलीभांति समझ लिए गए होते तो इस विषय पर बहुत सी अनर्गल और अस्पष्ट बातें सुनने में न आतीं। राष्ट्रीयता जातीयता नहीं है। राष्ट्रीयता धार्मिक सिद्धांतों का दायरा भी नहीं है। राष्ट्रयता सामाजिक बंधनों का घेरा भी नहीं है।

    राष्ट्रीयता का जन्म देश के स्वरूप से होता है। उसकी सीमाएं देश की सीमाएं हैं। प्राकृत विशेषता और भिन्नता देश को संसार से अलग और स्पष्ट करती है और उसके निवासियों को एक विशेष बंधन- किसी सादृश्य के बंधन से बांधती है। राष्ट्र पराधीनता के पालने में नहीं पलता। स्वाधीन देश ही राष्ट्रों की भूमि है, क्योंकि पुच्छविहीन पशु हों, तो हों, परंतु अपना शासन अपने हाथों में न रखने वाले राष्ट्र नहीं होते। राष्ट्रीयता का भाव मानव उन्नति की एक सीढ़ी है। उसका उदय नितांत स्वाभाविक रीति से हुआ। यूरोप के देशों में वह सबसे पहले जन्मा। मनुष्य उसी समय तक मनुष्य है, जब तक उसकी दृष्टि के सामने कोई ऊंचा आदर्श है, जिसके लिए वह अपने प्रांण तक दे सके। समय की गति के साथ आदर्शों में परिवर्तन हुए।


    धर्म के आदर्श के लिए लोगों ने जान दी और तन कटाया, परंतु संसार के भिन्न भिन्न धर्मों के संघर्षण, एक-एक आदेश में अनेक धर्मों के होने तथा धार्मिक भावों की प्रधानता से देश के व्यापार, कला-कौशल और सभ्यता की उन्नति में रुकावट पड़ने से अंत में धीरे-धीरे धर्म का पक्षपात कम हो चला और देश प्रेम का स्वभाविक आदर्श लोगों के सामने आ गया। जो पऱाचीनकाल में धर्म के नाम पर कटते मरते थे, आज उनकी संतति देश के नाम पर मरती है। पुराने अच्छे या ये नए, इस पर बहस करना फिजूल है, पर उनमें भी जीवन था और इनमें भी जीवन है। वे भी त्याग करना जानते थे और ये भी, और ये दोनों उन अभागों से लाख दर्जे अच्छे और सौभाग्यवान है, जिनके सामने कोई आदर्श नहीं और जो हर बात में मौत से डरते हैं। ये पिछले आदमी अपने देश के बोझ और अपनी माता की कोख पर कलंक हैं।


    देश प्रेम का भाव इग्लेंड में उस समय उदय हो चुका था, जब स्पेन के कैथोलिक राजा फिलिप ने इग्लेंड पर अजेय जहाजी बेड़े आरमेडा द्वारा चढ़ाई की थी, क्योंकि इग्लेंड के कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट, दोनों प्रकार के ईसाइयों ने देश के शत्रु का एक सा स्वागत किया था। फ्रांस की राज्य क्रांति ने राष्ट्रीयता को पूरे वैभव से खिला दिया था। इस प्रकाशमान रूप को देखकर गिरे हुए देशों को आशा का मधुर संदेश मिला। 19 वीं राष्ट्रीयता की शताब्दी थी। वर्तमान जर्मनी का उदय इसी शताब्दी में हुआ। पराधीन इटली ने स्वेच्छाचारी आस्ट्रिया के बंधनों से मुक्ति पाई, यूनान को स्वीधनता मिली और बालकन के अन्य राष्ट्र भी कब्रों से सिर निकालकर उठ पड़े। गिरे हुए पूर्व ने भी अपनी विभूति दिखाई। बाहर वाले उसे दोनों हाथों से लूट रहे थे। उसे चैतन्यता प्राप्त हुई। उसने अंगलाई ली और चोरों के कान खड़े हो गए। उसने संसार की गति की ओर दृष्टि फेरी। देखा, संसार को एक नया प्रकाश मिल गया है, और जाना कि स्वार्थपरायणता के इस अंधकार को बिना उस प्रकाश के पार करना असंभव है। उसके मन में हिलोरें उठीं, और अब हम उन हिलोरों के रत्न देख रहे हैं। जापान एक रत्न है- ऐसा चमकता हुआ कि राष्ट्रीयता उसे कहीं भी पेश कर सकती है। लहर रुकी नहीं। बढ़ी और खूब बढ़ी। अफीमची चीन को उसने जगाया और पराधीन भारत को उसने चेताया। फारस में उसने जागृति फैलाई और एशिया के जंगलों और खोहों तक में राष्ट्रीयता की प्रतिध्वनि इससमय किसी न किसी रूप में उसने पहुंचाई। यह संसार की लहर है। इसे रोका नहीं जा सकता। वे स्वेच्छाचारी अपने हाथ तोड़ लेंगे, जो उसे रोकेंगे, और उन मुर्दों की खाक का भी पता नहीं लगेगा जो इसके संदेश को नहीं सुनेंगे।

    भारत में हम राष्ट्रीयता की पुकार सुन चुके हैं। हमें भारत के उच्च और उज्जवल भविष्य का विश्वास है। हमें विश्वास है कि हमारी बाढ़ किसी के रोके नहीं रुक सकती। रास्ते में रोकने वाली चट्टानें आ सकती हैं। बिना चट्टानों के तो कोई रास्ता बड़ा और महत्व का रास्ता नहीं हो सकता। पर ये चट्टानें पानी की किसी बाढ़ को नहीं रोक सकतीं। परंतु एक बात है, हमें जान बूझकर मूर्ख नहीं बनना चाहिए। ऊटपटांग रास्ते नहीं नापने चाहिए। कुछ लोग हिंदू राष्ट्र चिल्लाते हैं। हमें क्षमा किया जाए, यदि हम कहें-नहीं, हम इस बात पर जोर दें – कि वे एक बड़ी भारी भूल कर रहे हैं और उन्होंने अभी तक राष्ट्र शब्द के अर्थ ही नहीं समझे।


    हम भविष्यवक्ता नहीं, पर अवस्था हमसे कहती है कि अब संसार में हिंदू राष्ट्र नहीं हो सकता,क्योंकि राष्ट्र का होना उसी समय संभव है, जब देश का शासन देशवालों के हाथों में हो। और यदि मान लिया जाए कि आजभात स्वाधीन हो जाए, या इंग्लैंड उसे औपनिवेशिक स्वराज्य दे दे, तो भी हिंदू ही भारतीय राष्ट्र के सबकुछ न होंगे। और जो ऐसा समझते हैं- हृदय से या केवल लोगों के प्रसन्न करने के लिए- वे भूल कर रहे हैं और देश को हानि पहुंचा रहे हैं।
    वे लोग भी इसी प्रकार की भूल कर रहे हैं और देश को हानि पहुंचा रहे हैं, वह लोग भी इसी प्रकार की भूल कर रहे हैं, जो टर्की या काबुल, मक्का या जेद्दा का स्वप्न देख रहे हैं। क्योंकि वे उनकी जन्मभूमि नहीं, और इसमें कुछ भी कटुता न समझी जानी चाहिए यदि हम ये कहें कि उनकी कब्रें इसी देश में बनेंगी और उनके मर्सिये-यदि वे इस योग्य होंगे तो इसी देश में गाए जाएंगे। परंतु हमारा प्रतिपक्षी-नहीं, राष्ट्रीयता का विपक्षी- मुंह बिचकाकर कह सकता है कि राष्ट्रीयता स्वार्थों की खान है। देख लो इस महायुद्ध को, इनकार करने का साहस करो कि संसार के राष्ट्र पक्के स्वार्थी नहीं हैं? हम इस विपक्षी का स्वागत करते हैं। परंतु संसार के किस वस्तु में बुराई और भलाई दोनों बातें नहीं हैं? लोहे से डाक्टर का घाव चीरने वाला चाकू और रेल की पटरियां बनती हैं, और इसी लोहे से हत्यारे का छुरा और लड़ाई की तोपें भी बनती हैं। सूर्य का प्रकाश फूलों को रंग-बिरंगा बनाता है, पर बेचारा उस मुर्दा लाश का क्या करे, जो उसके लगते ही सड़कर बदबू देने लगती है।



    हम राष्ट्रीयता के अनुयायी हैं, पर वही हमारी सबकुछ नहीं, वह केवल हमारे देश की उन्नति का

     उपाय-भर है।

    डिस्क्लेमरः पूरे होश ओ हवास में कह रहा हूं कि यही मेरे विचार हैं... जो मुझे उन गणेश शंकर विद्यार्थी से मिले हैं... जिन्होंने राष्ट्र की एकता अखंडता के लिए कानपुर के दंगों में हँसते हँसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे... उनकी हत्या भी उन्हीं उन्मादियों ने की थी जो आज  भी राष्ट्र की हत्या का जतन कर रहे हैं... बावजूद इसके 104 साल बाद भी यह विचार उतना ही जीवंत और जरूरी है... जितना प्रथम विश्वयुद्ध का पहला साल खत्म होते-होते,  21 जून 1915 को साप्ताहिक प्रताप में छपते वक्त था... 25 साला युवक गणेश शंकर विद्यार्थी उस वक्त युद्धोन्माद की छाया में भी राष्ट्रीयता और जातीयता, राष्ट्रीयता और धार्मिकता, राष्ट्रीयता और सामाजिकता के बीच के फर्क को साफ-साफ देख रहा था और इस तथ्य से भलीभांति अवगत भी था कि राष्ट्रीयता का जन्म देश के स्वरूप से है न कि काल और परिस्थितियों से... यही नहीं राष्ट्रीयता और अंध राष्ट्रीयता के बीच के जिस बारीक अंतर को पकड़ पाने में बड़े-बड़े मनीषियों को गड़बड़ाते देखा गया, उसे भी उन्होंने स्पष्ट रेखांकित किया था... आज एक तरफ धर्म निरपेक्षता और दूसरी तरफ धर्म के बरक में लिपटी धार्मिक राष्ट्रीयता का दम तो तमाम लोग बढ़ चढ़कर भर रहे हैं, लेकिन ऐसी धर्म निरपेक्ष राष्ट्रवादी दृष्टि अपनाने का साहस कितने लोगों में है? इसका फैसला मैं पाठकों पर छोड़ता हूं...



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