• हिंदुस्तानी सियासत का नया सूरज और अस्तांचल में लाल सितारा...



    साक़िया आज मुझे नींद नहीं आयेगी

    सुना है तेरी महफ़िल में रतजगा है

    आँखों-आँखों में यूँ ही रात गुज़र जायेगी

    सुना है तेरी महफ़िल में रतजगा है

    किसकी दुनिया यहाँ तबाह नहीं

    कौन है जिसके लब पे आह नहीं

    आज सूरत तेरी बेपर्दा नज़र आएगी

    ज़िन्दगी आज नज़र मिलते ही लुट जायेगी

    सुना है तेरी महफ़िल में रतजगा है......

    हां, वाकई में आज मेरी महफिल में रतजगा है... क्योंकि मैं बेताब हूं हिंद की किस्मत का वो सूरज उगता हुआ देखने के लिए जिसकी रोशनाई पर सवा सौ करोड़ हिंदुस्तानियों का कल टिका है... और परेशां हूं उस लाल सितारे के लिए जो इन सभी के बीच दांव पर लगा है...

    साल 1925... यह वो साल था जिसने दुनिया की सूरत ही बदल कर रख दी थी... लंदन में पहली बार टेलीविजन का ट्रांसमिशन हुआ तो सात समंदर पार हिंद में मुम्बई से कुर्ला के बीच पहली इलेक्ट्रिकल ट्रेन चली... रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में 10 क्रांतिकारियों के जत्थे ने अंग्रेज हुकूमत को खुली चुनौती दे काकोरी में ट्रेन रोककर 4000 रुपए का खजाना लूटा तो वहीं दूसरी ओर पहले बंगाल के टुकड़े करने और भारतीय विश्वविद्यालय आयोग की नींव रख देश की परंपरागत शिक्षा व्यवस्था का नक्शा बदलने वाले अंग्रेज हुकुमरान लार्ड जॉर्ज नथानिएल कर्जन दुनिया से रुखसत हो लिए... इसे इत्तेफाक ही कहेंगे कि हिंद की सरजमी पर इसी साल 90 दिनों के अंतराल पर दो विचारधाराओं की एक साथ पैदाइश हुई... दोनों के ही रंग इस कदर चटख थे कि 90 साल की उम्र हासिल करने तक हिंदुस्तानी सियासत की तमाम तारीखें इनके रंग में रंग गई...


    26 दिसंबर 1925.... हिंदुस्तान का मेनचेस्टर यानि याद शहर कानपुर... इस रोज मजलूम, शोषित और पीड़ित मजदूर, किसान और सर्वहारा के सहारे की शक्ल के तौर पर तेजी से दुनिया को अपनी जद में ले चुकी कम्युनिस्ट विचारधारा ने भारतीय राजनीति में अधिकारिक तौर पर अपना दखल दर्ज कराया... भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई)... देश की सबसे पुरानी पार्टियों में से एक का जन्म इसी रोज देश के सबसे बड़े सियासी सूबे में कॉमरेड एम एन रॉय, उनकी पत्नी एवलिन ट्रेंट रॉय, अबनी मुखर्जी, अबनी की पत्नी रोजा फिंगोफ, मोहम्मद अली (अहमद हसन), मोहम्मद शफीक सिद्दीकी, हसरत मोहानी, भोपाल के रफीक अहमद और एमपीटी आचार्य और सुल्तान अहमद खान तरिन के हाथों हुआ... आजाद हिंदुस्तान के सियासी इतिहास में यही ऐसी इकलौती पार्टी है जिसने सभी आम चुनाव सिर्फ एक ही चुनाव चिन्ह हंसिया और बाली पर लड़े... गरीब, मजदूर, शोषित और पिछड़ों की लड़ाई को अपनी ताकत बनाने वाला यह राजनीतिक दल खुद भी एकाधिकार की लड़ाई से जूझता रहा... 
    कम्युनिस्ट आंदोलन में भाकपा की पैदाइश को लेकर ही विवाद है... मार्क्सवादियों का मानना है कि पार्टी का गठन 17 अक्टूबर 1920 को कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस के तुरंत बाद हुआ था, लेकिन देश भर में छोटे-छोटे समूहों में बंटे धड़ों को मिलाकर एक मंच पर लाने में पांच साल का वक्त लग गया... और दावा तो यहां तक किया जाता है कि सीपीआई की नींव रखने को 25 दिसबंर 1925 को कानपुर में भारत की पहली कम्युनिस्ट कॉन्फ्रेंस का आयोजन कराने वाले शख्स कॉमरेड सत्यभक्त को ही नींव का पत्थर बनना पड़ा... कॉन्फ्रेंस में सत्यभक्त ने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की अधीनता अस्वीकार करते हुए पार्टी का स्वरूप नेशनल कम्युनिज्म देने की वकालत की, लेकिन तमाम डेलीगेट्स उनके ही खिलाफ खड़े हो गए... नतीजन गुस्साए सत्यभक्त ने विरोध स्वरूप कॉन्फ्रेंस का वॉकआउट कर दिया... भारतीय साम्यवादियों के लिए यही वो नाजुक पल था जिसे अस्वीकार कर उन्होंने भारत में सियासी जड़ें जमने से पहले ही उनमें विदेशी भक्ति का मट्ठा डालना शुरू कर दिया...
    साल 1964 आते आते तो आलम यह हुआ कि सीपीआई का एक धड़ा चीन और दूसरा सोवियत यूनियन का साथ चुनने के नाम पर ही इस कदर बंट गया कि पार्टी के दो टुकड़े हो गए... और दूसरे का नाम पड़ा भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानि सीपीआई एम.... और साल 2019 आते-आते तीन दर्जन से ज्यादा कम्युनिस्ट पॉलिटिकल पार्टीज अस्तित्व में आ चुकी हैं...

    साम्यवाद का सियासी आगाज

    यूं तो हिंदुस्तान की आवाम हिंदुस्तान रिपब्लिक सोशलिस्ट आर्मी ( हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन) जैसे क्रांतिकारी संगठनों की अमिट किस्से सुनकर साम्यवाद से बेहद प्रभावित हो चुकी थी... इस संगठन की नींव मुल्क को आजाद करने के लिए खुद के प्राणों का बलिदान देने से तनिक भी पीछे न हटने वाले महान सपूत और क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह एवं चंद्रशेखर आजाद आदि ने रखी थी... लेकिन, आजाद और भगत के साथ ही बंगाल के क्रांतिकारियों की लगातार बढ़ती सक्रियता से अंग्रेज हुकमरान इस कदर खौफ खाने लगे थे कि उन्होंने भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन को जड़ से ही खत्म करने की ठान ली... अंग्रेज हुकूमत का मानना था कि रूसी साम्यवादी हिंदुस्तानी युवाओं को न सिर्फ आजादी के लिए बरगला रहे हैं, बल्कि उन्हें गोला-बारूद और असलहों के लिए धन भी मुहैया करा रहे हैं... नतीजन कम्युनिस्ट विचारधारा से तेजी से जुड़ रहे युवाओं के खिलाफ अंग्रेजों ने झूठे मुकदमे कर जेल में डालना शुरू कर दिया...
    अंग्रेजों ने 1921 से लेकर 1927 के बीच कम्यूनिस्ट मूवमेंट के खिलाफ चलाए गए तीन षडयंत्र केसों (ट्राइल) पेशावर षडयंत्र, मेरठ षडयंत्र और कानपुर बोल्शेविक षडयंत्र केसों से इस दमन की शुरुआत की। सबसे पहले 1922-1927 के बीच पेशावर षड्यंत्र प्रकरण चलाया गया, लेकिन सबसे ज्यादा राजनीतिक प्रभाव पड़ा वर्ष 1924 में दर्ज हुए कानपुर बोल्शेविक षड्यंत्र प्रकरण से.... इस मामले में, भारत के नए उभरे कम्युनिस्टों को ब्रिटिश सरकार ने घेरने की गहरी साजिश रची। एम एन रॉय, मुजफ्फर अहमद, S A डांगे, शौकत उस्मानी, नलिनी गुप्ता, सिंगरवेलु चेट्टियार, गुलाम हुसैन को सरकार ने न सिर्फ पकड़ा... बल्कि हिंसक क्रांति के जरिए ब्रिटिश भारत को संप्रभुता के राजा की दया से वंचित करने की साजिश रचने का आरोपी बना मुकदमा भी चलाया। सिंगरावेलु चेट्टैर बीमारी की वजह से गिरफ्तार किया गया। एमएन रॉय जर्मनी में थे और आरसी शर्मा फ्रेंच शासित पांडिचेरी में थे। इसलिए ये गिरफ्तार नहीं हो सके। गुलाम हुसैन ने कबूल किया कि उसने काबुल में रूस से पैसा लिया था, जिसके बाद उसे माफ कर दिया गया। मुजफ्फर अहमद, नलिनी गुप्ता, शौकत उस्मानी और डांगे को सजा देकर जेल भेज दिया गया। इस केस की वजह से भारतीय पहली बार साम्यवाद से अवगत हुए। डांगे को 1927 में जेल से रिहा किया गया।
    तीसरा बड़ा मामला साल 1929 में मेरठ षड्यंत्र केस की शक्ल में सामने आया... इस प्रकरण की रोचकता यह थी कि कम्युनिस्ट युवाओं पर भारतीय मजदूर वर्ग को सशस्त्र आंदोलन के लिए भड़का ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ आतंकी साजिश रचने के आरोप में 31 श्रमिक नेताओं के साथ-साथ तीन अंग्रेजों एस.वी. घाट और फिलिप स्ट्रैट आदि को भी गिरफ्तार किया गया। इसके बाद तो कम्युनिस्ट किसी सियासी तार्रुफ के मोहताज नहीं रही।


    सियासी सफरः आजादी से पहले

    साल 1929 की शुरुआत के साथ ही भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) से जुड़े अधिकांश नेताओं को मेरठ षड़यंत्र केस में गिरफ्तार कर लिया गया। नतीजन, देश की पहला साम्यवादी दल नेतृत्वविहीन हो गया। वर्ष 1933 के आखिर तक जब एक-एक कर पार्टी के प्रमुख नेता जेल से रिहा हुए तो उन्होंने नए सिरे से दल को खड़ा करने की कोशिशें शुरू कर दीं। करीब आठ महीने की कोशिशों के बाद सीपीआई की सेंट्रल कमेटी का गठन हो सका और वर्ष 1934 में साम्यवादियों के अंतरराष्ट्रीय संगठन कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने इंडियन चेप्टर के तौर पर मान्यता प्रदान कर दी। यही वह साल था जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी साम्यवाद के प्रभाव में आए बिना न रह सकी। कांग्रेस के भीतर वामपंथी रुझान रखने वाले नेताओं ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) का गठन किया। जिसे सीपीआई नेताओं ने 'सामाजिक फ़ासीवाद' की संज्ञा दी, लेकिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अगुवाई के चलते अंतरराष्ट्रीय साम्यवादी संगठनों का कांग्रेस के प्रति रुख बदलने से सीपीआई नेताओं के नजरिए में भी बदलाव आया और सीपीआई के कई सदस्यों ने तो सीएसपी की सदस्यता तक ले ली और सभी मिलकर संयुक्त भारतीय सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना का खाका बुनने लगे।
    इसी बीच कांग्रेस का 53वां अधिवेशन झारखंच के रामगढ़ में वर्ष 1940 में 18 से 20 मार्च के बीच आयोजित किया गया। तब तक कांग्रेस में नरम दल और गरम दल की खाई इस कदर खिंच चुकी थी कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने गांधी और नेहरू के सामानान्तर रामगढ़ में अलग से अधिवेशन आयोजित कर डाला। भाकपा नेताओं ने सुभाष का साथ देने की ठानी और कांग्रेस के अधिवेशन में 'प्रॉलिटेरियन पाथ' शीर्षक से एक दस्तावेज़ जारी इस अधिवेशन में बंटवा दिया। कांग्रेस अधिवेशन में बांटे गए पर्चों पर बोस की नीति का समर्थन करते हुए लिखा गया था कि युद्ध के कारण औपनिवेशिक राज्य की कमज़ोर हालत को देखते हुए अंग्रेजों के ख़िलाफ़ सशस्त्र आंदोलन छेड़ा जाए। ताकि अपनी शर्तों पर जल्द से जल्द पूर्ण स्वराज हासिल किया जा सके, लेकिन सीपीआई के सुभाष बाबू को एक तरफा समर्थन दिए जाने से सीएसपी इसकदर बौखला गई कि उसने कम्युनिस्ट सदस्यों को पार्टी से बाहर कर दिया। नतीजन, कम्युनिस्टों ने इसके बाद तो खुलकर कांग्रेस की उपनिवेशवाद विरोधी रणनीति का न सिर्फ विरोध शुरू कर दिया, बल्कि साल 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की आलोचना तक करने लगे। जिसे लेकर सीपीआई और सुभाष चंद्र बोस के बीच इस हद तक दूरियां बढ़ गईं कि सीपीआई उनकी खुली निंदा करने से भी पीछे नहीं हटी। इस दौर में भाकपा की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह भी रही कि उसने कांग्रेस के मजदूर संगठन आल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस पर अपना वर्चस्व कायम कर लिया। उसने साल 1946 में हुए प्रांतीय चुनावों में भागीदारी की लेकिन इसे पूरे देश के 1585 प्रांतीय विधानसभा की सीटों में से कुल आठ सीटों पर जीत मिली।


    सियासी सफरः उलट बांसी

    कांग्रेस नेताओं के धोखे से कम्युनिस्ट इस कदर आहत हुए कि उन्होंने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के इशारे पर कांग्रेस की खिलाफतके साथ ही ब्रिटिश शासन का समर्थन तक कर डाला। इसके बाद तो रणनीतिक उलट बासी का ऐसा दौर चला कि पार्टी ने संविधान सभा का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया। तत्कालीन पार्टी महासचिव पी.सी. जोशी ने कम्युनिस्टों को समझाने की कोशिश की कि सत्ता का हस्तांतरण वास्तविक है और नेहरू की सरकार से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह साम्राज्यवाद-विरोधी ताकतों का प्रतिनिधित्व करती है। उन्होंने कम्युनिस्टों से आग्रह किया कि भाकपा को कांग्रेस के बारे में अपने विचारों का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए, लेकिन इस बयान के बाद तो वह खुद पार्टी के भीतर ही अलग थलग पड़ गए।
    वहीं दूसरी ओर कॉमरेड बी.टी. रणदिवे के नेतृत्व वाले खेमे ने तर्क दिया कि भारत में जन-विद्रोह ज़ोर पकड़ रहा है। इसलिए भाकपा लोकतांत्रिक और समाजवादी चरणों को मिला कर पूरे राष्ट्र में मज़दूरों के सशस्त्र संघर्ष के जरिए सत्ता पर कब्ज़ा करने की कोशिश कर सकती है। वहीं तेलंगाना से जुड़े गुट ने तो भारतीय राज्य के ख़िलाफ़ लोक-युद्ध छेड़ने तक की वकालत कर दी। इसे 'आंध्रा लाइन' कहा गया। आजादी के बाद आखिर कार वर्ष 1948 की कलकत्ता कांग्रेस में रणदिवे लाइन की जीत गई, लेकिन दूसरी ओर भारत में नेहरू ने तेलंगाना आंदोलन के सशस्त्र दमन की इजाज़त देने और इसी दौरान चीनी क्रांति के सफल होने के कारण पार्टी में 'आंध्रा लाइन' की स्थिति मज़बूत हो गयी। नतीजन, वर्ष 1950 में आंध्र के नेता सी. राजेश्वर राव ने पार्टी का नेतृत्व सम्भाला। हालांकि पी.सी. जोशी ख़ेमे ने इस कदम को न सिर्फ वामपंथी भटकाव की संज्ञा दी, बल्कि कट्टर तरीके से चीनी रास्ते का अंधा अनुसरण करने की आलोचना की। जोशी ने नेहरू सरकार की देशी-विदेशी नीति का विश्लेषण करते हुए यह साबित करने की कोशिश की कि इसमें साम्राज्यवाद-विरोधी प्रवृत्ति है।


    विवाद भारत का फैसला मास्को में 

    पार्टी के इस आंतरिक विवाद को सुलझाने के लिए पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता मास्को गये और वहाँ के कम्युनिस्ट पार्टी नेताओं से लम्बी चर्चा की। इसके बाद तीन दस्तावेज़ तैयार हुए। इन दस्तावेज़ों में यह स्पष्ट किया गया कि भारत एक निर्भर और अर्ध-औपनिवेशिक देश है और नेहरू सरकार ज़मींदारों, बड़े एकाधिकारवादी बुर्जुआ और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हितों को पूरा कर रही है। इसके बाद पार्टी की कमान मध्यमार्गी नेता अजय घोष के हाथों में सौंप दी गई। तब कहीं जाकर सीपीआई ने आजादी के तीन साल बाद मुल्क आज़ाद होने की बात कबूल उसे न सिर्फ मान्यता दीस, बल्कि भारतीय संविधान को स्वीकार करते हुए चुनावों में भाग लेने का फ़ैसला किया गया। नतीजन वर्ष 1956 में हुए पहले आम चुनावों में पार्टी ने लोकसभा में 16 सीटों पर जीत हासिल करके यह मुख्य विपक्षी दल की जगह बनाई।


    सियासी सफरः विश्व की पहली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार

    दूसरा आम चुनाव आते-आते सीपीआई ने मजदूरों और गरीब तबके के बीच अपनी पैठ बना 27 लोकसभा क्षेत्रों में जीत हासिल की। इतना ही नहीं केरल में तो वर्ष 1957 के विधानसभा चुनावों के बाद ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में भाकपा ने सरकार भी बनाई। हिंदुस्तान ही नहीं वरन वैश्विक राजनीतिक इतिहास में यह मौका इसलिए भी खास था कि नम्बूदरीपाद की सरकार विश्व की पहली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार थी, लेकिन नेहरू इसे बर्दास्त न कर सके और उन्होंने वर्ष 1959 में इसे बर्ख़ास्त कर दिया। पुराने नेताओं के जख्मों पर मानो नेहरू ने फिर से नमक छिड़क दिया हो, लेकिन साम्यवादियों के सामने मुश्किल यह थी कि उनका रिमोट उस सोवियत यूनियन के हाथों में था जिससे नेहरू के रिस्ते काफ़ी अच्छे थे। सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी चाहती थी हि सीपीआई नेहरू से नर्मी से पेश आएं, लेकिन इसी बीच दुनिया के साम्यवादियों को चलाने वाली दो ताकतें सोवियत यूनियन और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियां ही आपस में भिड़ बैठीं। नतीजन सीपीआई के असंतुष्ट धड़ों ने खुली बगावत का ऐलान कर दिया।

    सियासी सफरः राष्ट्रवाद बनाम रिमोटवाद

    1962 में भारत-चीन के बीच हुए युद्ध के दौरान भाकपा के सोवियतन यूनियन समर्थक धड़े ने नेहरू सरकार की नीति का समर्थन किया तो दूसरे ने इसे 'वर्ग-सहयोग' के संशोधनवादी विचार की संज्ञा दे डाली। इसी दौरान तीसरे आम चुनावों में भाकपा को सिर्फ 29 सीटों पर ही जीत मिली। वह अब भी संसद में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी तो थी, लेकिन असंतुष्टों को लगने लगा कि जब तक कम्युनिस्ट नेहरू के मोहपाश से बाहर नहीं निकलेंगे तब तक वह आगे नहीं बढ़ सकते। इस धड़े ने दावा किया कि यह समाजवादी और पूँजीवादी शक्तियों के बीच नई तरह का टकराव है। नतीजन 1964 आते-आते सीपीआई दो फाड़ हो गई। नई पार्टी बनी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआईएम).... नम्बूदरीपाद से लेकर ज्योति बसु, हरकिशन सिंह सुरजीत आदि मंझे हुए नेता पुराना दल छोड़ इस नई पार्टी में शामिल हो गए। यह बंटवारा सीपीआई के ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ। कांग्रेस की मौका परस्ती और छिछली सियासत का मुजाहिरा 1970-77 के बीच केरल में एकबार फिर देखने को मिला। नेहरू की जिस कांग्रेस ने विश्व की पहली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त किया था, उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने उसी राज्य में और उसी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन कर 4 अक्टूबर 1970 से 25 मार्च 1977 तक न सिर्फ सरकार में हिस्सेदारी की बल्कि कॉमरेड़ के सी. अच्युत मेनन को बतौर मुख्यमंत्री भी स्वीकार किया, लेकिन साम्यवादियों को यह साथ जरा भी रास नहीं आया। भारतीय राजनीतीक का इतिहास गवाह है कि इसके बाद भाकपा को किसी राज्य में दोबारा सत्ता में लौटने का भारतीय जनमानस ने मौका नहीं दिया।

    सियासी सफरः एक कदम आगे, दो कदम पीछे

    1964 के पार्टी-विभाजन के बाद दोनों साम्यवादी दल अलग-अलग चुनाव लड़ते रहे। 1967 और 1971 में बिहार से भाकपा के पांच सांसद थे, जबकि माकपा बिहार में अपनी जड़ें नहीं जमा सकी। जबकि इस पांचवीं लोकसभा (1971) में 12 फीसदी वोट हासिल कर संसद तक कुल 53 कम्युनिस्ट सांसद पहुंचे थे, लेकिन आपातकाल के दौरान साम्यवादियों ने फिरसे इंदिरा गांधी का समर्थन कर भारी रणनीतिक चूक कर दी। नतीजन, 1977 में उसे 41 सीटें मिली थीं और वोट प्रतिशत घट कर आठ फीसदी ही रह गया। हालांकि, सातवीं लोकसभा (1980) में दो फीसदी मतों के इजाफे के साथ सीटें बढ़कर 54 तो हो गईं, लेकिन अगले ही चुनावों में इतने ही वोट परसेंट के बावजूद आठवीं लोकसभा (1984) में महज 34 साम्यवादी सांसद ही सदन की दहलीज तक पहुंच सके। एक बार फिर रिवर्स स्वींग देखने को मिला नौवीं लोकसभा (1989) में... कम्युनिस्ट पार्टियों का वोट प्रतिशत पहले के बराबर रहने के बावजूद सांसदों की संख्या बढ़ कर 52 हो गई।

    सियासी सफरः अफीम की आग में झुलसा साम्यवाद

    1937 में मार्क्स ने अपने पिता को एक पत्र में लिखा था, ‘संसार में सबसे ज्यादा खुशी उसी को मिलती है, जो सबसे ज्यादा लोगों की खुशी के लिए काम करता है., लेकिन उनके इंडियन फॉलोअर्स इस मर्म को आज तक नहीं समझ सके और वह अपनी कथित बौद्धिक खुशी के मोह पाश में फंसकर कभी तय नहीं कर सके कि उन्हें कौन सा रास्ता चुनना है... जिसमें से एक वो खूनी माओवाद भी था...जिसने शोषितों के ही शोषण का रास्ता खोज निकाला... मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी समाज में पूंजी स्वतंत्र और व्यक्तिगत होती है, जबकि जीवित व्यक्ति उसके आश्रित होता है और उसकी कोई वैयक्तिकता नहीं होती...नतीजन वह पार्टी के लिए इतना भी फंड नहीं जुटा सके कि निचले स्तर के कार्यकर्ता को उसका जेब खर्च भी दे सकें। जरूरत तब तक अंधी होती है, जब तक उसे होश न आ जाये. आजादी जरूरत की चेतना होती है.... अस्तित्व बचाए रखने की जरूरत भी इस चेतना का विकास नहीं कर सकी... ऊपर से उनके बहुप्रचलित कथन धर्म लोगों के लिए अफीम है ने धर्मभीरू हिंदुस्तानियों के बीच और अनर्थ मचा दिया... दार्शनिक के तौर पर मार्क्स का मानना था कि लोगों की खुशी के लिए पहली आवश्यकता धर्म का अंतहै... लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट शब्दों के भंवर जाल में ऐसे फंसे कि वह इसका वह मर्म नहीं समझ सके जो सरकार भगत सिंह ने उन्हें दिया था... वह आम भारतीय को आज दिन तक भी मार्क्स का पूरा कथन धर्म दीन प्राणियों का विलाप है, बेरहम दुनिया का हृदय है और निष्प्राण परिस्थितियों का प्राण है. मानव का मस्तिष्क जो न समझ सके, उससे निपटने की नपुंसकता है. यह लोगों की अफीम है और उनकी खुशी के लिए पहली आवश्यकता इसका अंत है. से परिचित तक नहीं करा सके। उल्टा उन्होंने भारतीय समर्थकों को ऐसी वैचारिक उलझनों के हवाले कर दिया कि बेचारा रोजी रोटी का हिसाब छोड़ उन्हें ही सुलझाते-सुलझाते उलझकर रह जायें। नतीजन, 90 के दशक में कांग्रेस के ढ़लान के दौर के साथ ही मंडल कमंडल की आड़ में जाति एवं धर्मभीरु राजनीति का खुला आगाज हुआ तो कम्युनिस्ट ऐसे भंवर जाल में फंसे कि साल 2014 में 16वीं लोकसभा के चुनाव का परिणाम आते-आते देश की सबसे पुरानी पार्टियों में से एक भाकपा की लोकसभा में सिर्फ एक सांसद तक मौजूदगी सिमट कर रह गई। वहीं माकपा समेत तीन दर्जन साम्यवादी दलों के सांसदों की संख्या नौ तक सिमट गई। जबकि सभी का वोट प्रतिशत घटकर कुल मतदान का महज चार फीसदी ही रह गया।

    सियासत, आरोप और गलतियां

    मुल्क की आजादी के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले जोशीले युवाओं के उस जत्थे ने जैसे ही सियासी चोला ओढ़ा कम्युनिस्टों का मतलब ही गलतियों का चलता फिरता पुतला बन गया.... पहले महात्मा गांधी और फिर नेताजी सुभाष चंद्र बोस का विरोध... फिर ब्रितानिया हुकूमत का समर्थन.... और फिर हिंदुस्तान की आजादी को न कबूल, संविधान सभा और चुनावों का बहिष्कार....आपातकाल और इंदिरा गांधी का समर्थन करना और उसके बाद चीन एवं रूस की ठेकेदारी... तक की कम्युनिस्टों की गलतियां भी भुलाई जा सकती हैं, लेकिन उसके जब चीन ने भारत पर हमला किया तो उसका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध करने के बजाय मुखबिरी में शामिल हो जाना कम्युनिस्टों के लिए प्राणघातक साबित हुआ। यह ऐसे आरोप हैं जिनका कम्युनिस्ट आज तक मुंह तोड़ जवाब नहीं दे पाए... इसे विपक्ष का प्रोपगेंडा कहें या वह कड़वी हकीकत कि कम्युनिस्ट CIA के उन दस्तावेज़ों को आज तक खारिज नहीं कर पाए जिनमें उन पर चीन के कहने पर कम्युनिस्ट नेता एच के सुर्जीत ने भारतीय सेना में अपने खूफिया संगठन तैनात करने को राज़ी हो गये थे। 

    The CIA today released a collection of declassified analytic monographs and reference aids, designated within the Central Intelligence Agency (CIA) Directorate of Intelligence (DI) as the CAESAR, ESAU, and POLO series, highlights the CIA's efforts from the 1950s through the mid-1970s to pursue in-depth research on Soviet and Chinese internal politics and Sino-Soviet relations. Of particular interest to India is a 3 part series on the border dispute with China but more juicy document is 12 MB dossier on the Indian Communist Party, this should stir up politics in India at a time when the Manmohan Singh, Sonia Gandhi lead Congress has accorded unprecedented leverage to the Communists who are celebrating 30 years of rule in Bengal.
    Offstumped has reviewed the documents and was amazed to learn the extent to which the Communists looked for direction from Russia and China, sought support and approval and pretty much sub-ordinated national interest at the altar of a dubious ideology and subservience to the Chinese.
    In Feb 1958 an official of the Soviet Embassy contacted CPI Leaders to renew the request to setup an underground organization. While AjoY Ghosh refused, HK Surjeet and others privately decided that Ghosh was taking a complacent line and decided to reach out to the CPSU outside of party channels.

    सिक्के का दूसरा पहलूः भगवे में रंगा राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ

    27 सितंबर 1925... कांग्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम के जिस बलिदान को भुनाकर भारत की सियासत पर कब्जा किया था... उसे नेस्ते नाबूत करने वाला संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी भाकपा से कुछ रोज पहले ही जन्मा था... कम्युनिस्टों का सूरज उनकी उलझनों के ग्रहण में जैसे-जैसे उलझता गया... वैसे-वैसे इस संगठन ने अपनी सियासी कश्ती की रफ्तार और तेज कर दी... वर्ष 2014 में सत्ता हासिल करने वाली इस संगठन की पोषित पल्लवित सियासी पार्टी भाजपा को 80 करोड़ मतदाताओं में से मात्र 17 करोड़ 16 लाख 57 हजार 549 ने वोट दिया है, जो कुल मतदाताओं का 21.45 प्रतिशत है.... बावजूद इसके वह धूम धड़ाके से पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आ गई.... एक ही साथ पैदा होने और तमाम प्रतिबंध, लानत और विरोध झेलने के बावजूद आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिस मुकाम पर पहुंचा है, उस मुकाम तक कम्युनिस्ट पार्टियां कभी नहीं पहुंच सकीं.... भाजपा में कोई विभाजन नहीं हुआ, पर कम्युनिस्ट पार्टी सिद्धांत के स्तर पर कई खंडों में विभाजित हो चुकी है. समर्पित कार्यकर्ताओं की वहां कभी कोई कमी नहीं रही, पर आज उन कार्यकर्ताओं में पहले जैसा न उत्साह है, न समर्पण.... समझ नहीं आता नरेंद्र मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत नारा देने के बावजूद बहरे बनकर कुंभकर्णी नींद खींचने वाले कम्युनिस्ट नेता यह क्यों नहीं समझ पाए कि विचारधारा के धरातल पर भगवादल को सिर्फ और सिर्फ असल खतरा एवं खौफ 'लाल सलाम' से ही है....
    बीते पांच साल पर ही नजर डालें तो दौरान कभी संगठन को फिर से मजबूती देने... कार्यकर्ताओं के मरे हुए उत्साह को जिलाने और सड़क पर उतरकर संघर्ष की रणनीती बना उस पर अमल करने की समझ और सुध लेफ्ट के लेफ्टीनेंटों को क्यों नहीं आई.... सोलहवीं लोकसभा चुनाव ने वाम दलों को बड़ी नसीहत दी, लेकिन वह तो मानो खात्मे के महूर्त का इंतजार भर कर रहे हों....

    .... 23 मई का सूरज और वामपंथ का अस्तांचल

    भारत के भविष्य का सूरज चंद क्षणों बाद फिर उदित होगा... लेकिन इस खौफ के साथ कि उसकी धधक भारतीय वामपंथ को अस्तांचल में न धकेल दे... ‘भारत के वामपंथियो! एक हो और अपने पंथ का राष्ट्रीय करण करो... जैसे नारों से बात बेहद आगे निकल चुकी है... इस मुल्क में राजनीति करनी है तो तौर तरीके भी यहीं के अपनाने होंगे... चीन और रूस तुम्हारी खुदती कब्र पर फातिहा भी पढ़ने नहीं आएंगे... खैर जिस बात को मुल्क की आवाम नौ दशकों से चीख चीख कर बता रही हो उसका सुनाई न पड़ना तो यही साबित करता है कि 23 मई की तारीख किसी और के लिए मायने रखे न रखे... लेकिन, न जाने क्यों जान पड़ता है कि कम्युनिस्ट सियासत के लिए उसकी संसद से रवानगी के तौर पर जरूर याद रखी जाएगी...
    प्यारे, कम्युनिस्टो मुझे तुमसे सिर्फ इतनी सी ही मोहब्बत है कि पहली मर्तबा “लाल सलाम” दादा ठाकुर राम सिंह से सुना था और उन्होंने आजाद, भगत और दुर्गा भाभी से... दूसरी इसलिए कि पढ़ने की आदत तुम्हारे कारिंदों ने किताबें दे देकर डाली...सो मोदी के शोर में भी मुझे तुम्हारा स्मरण रहा... और तीसरी इसलिए कि कुछ दोस्तों की जवानी मार्क्सवादी बलिदानों के किस्सों से दोहरी हो गई... लेकिन, इस बुढ़ौती में अब उन्हें उधार के सियासतदारों की जयकार करनी पड़ रही है....
    आखिर में यह और बताता चलूं कि मैं उस मार्क्स से भला कैसे इत्तेफाक रख सकता हूं जो खुद कहता हो कि अगर कोई एक चीज निश्चित है तो यह कि मैं खुद मार्क्सवादी नहीं हूं.... और तब तो बिल्कुल भी नहीं जब वह कहते हों कि जीने और लिखने के लिए लेखक को पैसा कमाना चाहिए. लेकिन किसी भी सूरत में उसे पैसा कमाने के लिए जीना और लिखना नहीं चाहिएलेखक इतिहास के किसी आंदोलन को शायद बहुत अच्छी तरह से बता सकता है, लेकिन निश्चित रूप से वह उसे बना नहीं सकता.... तो प्यारे साथी उन्हें बताना कि तुम्हारे पुजारी नेहरू गांधी के कंधे पर चढ़कर हिंदुस्तान के जिस इतिहास से जिंदगी भर खेलते ही रहे... चंद संघियों ने उसे ही झाड़ पोंछकर न सिर्फ मार्क्स के काल को, बल्कि पूरे साम्यवाद को ही सियासी खेल से बाहर धकेल दिया.. और तो और उन्होंने खेल के नियम और नतीजे तक बदल डाले....। ईश्वर में तुम्हें यकीन नहीं इसलिए दुआ भी नहीं मांग सकता तुम्हारी नीम बेहोशी से बाहर निकलने और इस नीले आसमान पर फिर से चमकीले तारे के सूरज बनने की।
    साथियो, बस यही उम्मीद करूंगा कि क्रांति तो अमर है और रहेगी... लेकिन जो नतीजे एक बार आते हैं उन्हें भी मारा नहीं जा सकता...ठीक कॉमरेड कानू सान्याल के माफिक... भाकपा के रास्ते जिस तरह माकपा होते हुए नक्सल आंदोलन तक पहुंचे... जब उसी के जनक कानू को आखिर तुम और तुम्हारी विचारधारा इतना सा सहारा और जगह नहीं दे सके कि नौ साल पहले अपने ही घर में फांसी के फंदे से लटक कर मौत के गले लगाने के बजाय सुकून से बाकी बची जिंदगी गुजार सके... तो सोचो भारत जैसे विविध और विशाल मुल्क की बहुरंगी आवाम का क्या भला कर सकते हो... साथियो, उम्मीद करूंगा... कि 23 मई एक और अंत की गवाह बनने से बच जाए... क्योंकि व्यक्ति की भरपाई तो हो सकती है, लेकिन विचारधारा एक बार मरी तो फिर से चाहकर भी उसकी सांसें नहीं लौटा सकोगे... वैसे भी पूंजिवादी बुर्जुआओं के बीच... आखिर सदन में कोई तो हो जो मजदूरों किसानों का जिक्र छिड़ते ही कह सके.... लाल सलाम। शुभकामनाएं।

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    लेफ्ट के लेफ्टीनेंट और सियासी क्रांति

    सीपीआईएम

    लोकसभा  - वर्ष - कुल सीटें- प्रत्याशी - जीते - बदलाव - कुल मतदाता - वोट प्रति -बदलाव-

    चोथी      -1967 - 520 - 59 - 19 - --- - 6,246,522 - 4.28 - 00

    पांचवीं -1971 - 518 - 85 - 25 - बढ़त 06 - 7,510,089 - 5.12 - 0.84 बढ़त

    छठवीं -1977 - 542 - 53 - 22 - बढ़त 03 - 8,113,659 - 4.29 - 0.83 घटत
    सातवीं - 1980 - 529 - 64 - 37 - बढ़त 15- 12,352,331- 6.24 - 1.95 बढ़त
    आठवीं - 1984 - 541 - 64 - 22 - घटत 15 -14,272,526 -5.72 - 0.52 बढ़त
    नौवीं - 1989 - 529 - 64 - 33 - बढ़त 11 - 19,691,309 - 6.55 - 0.83 बढ़त
    दसवीं - 1991 - 534 - 63 - 35 - बढ़त 02 - 17,074,699 - 6.14 - 0.41 घटत
    ग्यारहवीं - 1996 - 543 - 75 - 32 - घटत 03 - 20,496,810 - 6.12 - 0.02 घटत
    बारहवीं - 1998 - 543 - 71 - 32 - 00 - 18,991,867 - 5.16 - 0.96 घटत
    तेरहवीं - 1999 - 543 - 72 - 33 - बढ़त 01 - 19,695,767 - 5.40 - 0.24 बढ़त
    चौदहवीं- 2004 -543 - 69 - 43 - बढ़त 10 - 22,070,614 - 5.66 - 0.26 बढ़त
    पंद्रहवीं - 2009 - 543 - 82 - 16 - घटत 27 - 22,219,111 - 5.33 - 0.33 घटत
    सोलहवीं- 2014 - 543 - 97 - 09 - घटत 07 - 17,986,773 - 3.24 - 2.09 घटत
    -------------लोकसभा में राज्यवार प्रदर्शन

    राज्य - प्रत्याशी 2014 - निर्वाचित - प्रत्याशी 2009- निर्वाचित 2009- कुल सीटें  
    केरल - 10 - 5 - 14 - 4 - 20तमिलनाडु - 9 - 0 - 03 - 01 - 39त्रिपुरा - 2 - 2 - 2 - 2 - 2पश्चिम बंगाल - 32 - 2 - 32 - 9 - 42कुल - 93 - 9 - 82 - 16 - 543अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, चंडीगढ़, दादरा और नगर हवेली, दमन और दीव, दिल्ली, लक्षद्वीप, पुडुचेरी, अरुणाचल प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, आंध्र प्रदेश में एक भी सीट नहीं हासिल हो सकी।
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    पांच साल में राज्यों का हाल
    राज्य - - उम्मीदवार - निर्वाचित - कुल सीटें - चुनावी साल
    आंध्र प्रदेश - 68 -1 -294 - 2014असम - 19 - 0 - 126- 2016बिहार - 43 - 0 - 243 - 2015छत्तीसगढ़ - 4 - 0 - 90 - 2013दिल्ली - 3 - 0 - 70 - 2015गोवा - 0 - 0 - 40 - 2017गुजरात - 2 - 0 - 182 - 2017हरियाणा - 17 - 0 - 90 - 2014हिमाचल प्रदेश - 16 - 1- 68 - 2017जम्मू और कश्मीर - 3- 1- 87- 2014झारखंड - 12 - 0 - 81 - 2014कर्नाटक - 16 - 0 - 224- 2013केरल - 84 - 58 - 140 - 2016मध्य प्रदेश - 8 - 0 - 230 - 2013महाराष्ट्र - 20 - 1 - 288 - 2014मणिपुर - 2 - 0 - 60 - 2017ओडिशा - 12 - 1 - 147 - 2014पुडुचेरी - 4 - 0 - 30 - 2016पंजाब - 12 - 0 - 117 - 2017राजस्थान - 38 - 2 - 200 - 2018सिक्किम - 0 - 0 - 32 - 2016तमिलनाडु - 25 - 0 - 234 - 2016त्रिपुरा - 56 - 16 - 60 - 2018उत्तर प्रदेश - 26 - 0 - 403 - 2013
    उत्तराखंड - 6 - 0 - 70- 2017पश्चिम बंगाल - 148- 26- 294- 2016
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    भाकपा का हाल

    लोकसभा- वर्ष- कुल सीटें- प्रत्याशी- जीते- परिवर्तन- सीटों में -वोट- वोट% में बदलाव- वोट%
    पहले -1952- 489- 49- 16 - 3,487,401 - 3.29%
    दूसरा - 1957- 494- 109- 27 -बढ़त 11 -10,754,075 - 8.92% -बढ़ाए 5.63% 
    तीसरा -1962- 494 -137- 29 - वृद्धि 02-  11,450,037 - 9.94% -वृद्धि 1.02% 
    चौथा - 1967 - 520 - 109 - 23 - कमी 06 - 7,458,396 - 5.11% - गिरावट 4.83% 
    पांचवें - 1971-  518-  87 -  23 - स्टेडी 00-  6,933,627 - 4.73% - घटकर 0.38% 
    छठी  -1977 - 542 - 91 - 7 - कमी 16 - 5,322,088  -2.82% - कमी 1.91% 
    सातवीं - 1980 - 529 - 47 - 10 - वृद्धि 03 - 4,927,342 - 2.49% - घटकर 0.33% -
    आठवीं - 1984 - 541 - 66 - 6 - घटती 04 - 6,733,117 - 2.70% - वृद्धि 0.21% 
    नौवीं  - 1989 - 529 - 50 - 12 - वृद्धि 06-  7,734,697 - 2.57% - 0.13% घटाएँ 
    दसवीं - 1991 - 534 - 43 - 14 - वृद्धि 02 - 6,898,340 - 2.48% - घटकर 0.09% 
    ग्यारहवीं - 1996-  543 - 43 - 12 - कमी 02 - 6,582,263 - 1.97% - गिरावट 0.51% 
    बारहवीं - 1998 - 543 - 58 -  09 - घट 03 - 03,429,569 - 1.75% - घटा 0.22% 
    तेरहवीं - 1999 - 543 - 54 - 04 -  घटकर 05 -  5,395,119 - 1.48% - घटकर 0.27% 
    चौदहवीं - 2004 - 543 - 34 - 10 - वृद्धि 06 - 5,484,111 - 1.41% - घटकर 0.07% 
    पंद्रहवीं  - 2009 -  543 - 56 - 04 - कमी - 06 -  5,951,888 - 1.43% - वृद्धि 0.02% 
    सोलहवीं - 2014 - 543 - 67 - 01 - कमी 03 - 4,327,298 - 0.78% - गिरावट 0.65% 
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