पारिवारिक एवं
पेशागत परिवेश के चलते काफी लंबे समय तक सत्ता और विपक्ष में रहे राजनेताओं एवं
नौकरशाहों की कार्यशैली व कार्य-क्षमताओं को बेहद करीब से देखने का जन्मजात सुअवसर
मुझे मिला। साथ ही उनके सह संबंधों को समझने एवं व्यवस्था संबंधी विषय की अंदरूनी
सतह तक पहुंचने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। हालांकि, गुरुजनों से मिले पेशागत
विवेक ने इस दिशा में मेरे कुछ वर्षों के अनुभव को अपने से दोगुनी उम्र के व्यक्ति
के बराबर की समझ होने का भ्रम भी प्रदान कर दिया, लेकिन पहली मर्तबा लगा है कि क्यों
न इस भ्रमजाल को मीमांशा की कसौटी पर कसा जाए... उस दौर और व्यवस्था में तो यह और
भी जरूरी हो जाता है, जब आपके पैशन को लोक श्रेष्ठी प्रॉस्टीट्यूट का दर्जा दिलाने
को आतुर बैठे हों... तो फिर देर किस बात की, "शंटू
के चश्मे" से मैने जो अल्पज्ञान हासिल किया है... कसिए उसे अपनी
विवेचना की कसौटी पर... हो सके तो मेरे विचारों के भ्रमजाल को तोड़ मेरी खामियों
को दुरुस्त जरूर कीजिएगा...
व्यवस्था और दखलइस विषय पर यदि ईमानदारी से विचार करना हो, तो सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि
व्यवस्था अथवा System है क्या ? साधारण भाषा में कहें तो व्यवस्था एक ऐसी प्रक्रिया है,
जिसका आम आदमी के सुख-दुख, प्रसन्न-अप्रसन्न, संतुष्ट-असंतुष्ट होने में इतना
व्यापक योगदान है कि यह उसके जीवन का अभिन्न अंग बन गई है । व्यवस्था एक ऐसा रास्ता है, जो प्रारंभ में तो सीधा होता
है किंतु कुछ तथाकथित लाभार्थियों को रोके जाने के नाम पर समानता के अधिकार की
दुहाई देकर, चतुर नौकरशाही इसे धीरे-धीरे जटिल करती जाती है । उदाहरणार्थ, लगभग
प्रत्येक वर्ष Income Tax Return फॉर्म के प्रारूप में परिवर्तन कर उसे आसानी से भरा जा
सकेगा, ऐसी मंशा जताते हुए न जाने कितनी सरकारों ने आम आदमी से कुंतलों वाहवाही
लूटी है । मत भूलिए इस देश की चातुर्य से भरपूर नौकरशाही ने अभी कुछ वर्षों पहले
तो इसका नाम ही ‘सरल’ रख दिया था।
मेरे विचार से ‘व्यवस्था’ और ‘नौकरशाही’ के संबंधों को स्वेटर और उसे बुनने की प्रक्रिया के जरिए आसानी
से समझा जा सकता है। यहां ‘व्यवस्था’ कई रंगों की ऊन से बुने गए उस रंग-बिरंगे डिजाइनर स्वेटर
की तरह है, जो सर्दी में आपकी ठंड को दूर भगाने का एहसास व गर्मी में आपको उसे उतारने
की इच्छा जागृत करने वाला तंत्र विकसित करती है। इस तंत्र के एक सीजन में आप बेहद
खुश तो वहीं दूसरे सीजन में परेशान नजर आते हैं , यानि यह तंत्र आपको एक पल बेहद उपयोगी तो दूसरे ही क्षण कतई अनुपयोगी महसूस
होने लगता है।
बावजूद इसके, ‘नौकरशाही’ स्वेटर बुनने वाली उस सुगढ़ महिला की भांति हर समय
प्रतिष्ठित रहती है, जो कभी सलाईयों के नम्बर बदल कर, तो कभी रंग और पैटर्न में
बदलाव कर, तो कभी उसे पूरा उधेड़कर और कभी फुलबाजू वाला या हाफ बाजूवाला स्वेटर
बुनकर आपको तंत्र के विभिन्न पैमानों की ठंडी मार से बचाए रखने का एहसास करवाने
में साल दर साल निरंतर जुटी रहती है। मिजाजी मौसम के बदलाव के चलते यदि यदा कदा जनता
ज्यादा व्यग्र होती नजर आती है, तो इस घुटन को दूर करने को उसकी सहूलियत के
मुताबिक पुराने ही स्वेटर को कभी Round
Neck, V-Neck या फिर
बंद गले वाला बनाकर आक्रोश और ख्वाहिशों से पार पाने की न सिर्फ कोशिश करती है,
बल्कि निश्चित ही वह इसमें सक्षम और सफल भी रहती है। सुव्यवस्था के भ्रमजाल को
कायम रखने में नौकरशाही के योगदान संबंधी विषय में अनेकों पक्ष हैं, किंतु राजनीति
के तीन ही प्रमुख तत्व अब तक अपनी मौजूदगी दर्ज करा सके हैः- (i)
राजनेताओं और (ii) राजनैतिक दलों की भूमिका व कार्य-शैली (iii) आखिरी
टुकड़े-टुकड़े हो चुकी आवाम ।
राजनेताओं का पदार्पण
अनगिनत खांचों के बावजूद, राजनीति का जिक्र छिड़ते ही भारतीय जनमानस स्पष्ट
रूप से दो धाराओं में विभाजित हो जाता है। पहले, वह लोग जो यह मानते हैं कि
मुसीबतों से घिरे लोगों को यदि कोई अव्यवस्था के घोर कलयुग से मुक्ति दिला सकता है,
तो भगवान कल्कि का वह अवतार सिर्फ आदर्श राजनेता ही हो सकता है। और, दूसरे भ्रष्ट, अपराधी और स्वार्थ से लबालब वह धूर्त
लोग जिनका ध्येय हर कीमत पर निज लाभ ही होता है, गाल बजाते हुए कभी कहने से नहीं
चूकते कि इस देश, आवाम और व्यस्था का सबसे बड़ा दुश्मन यदि कोई है तो वह सिर्फ एक
ही शैतान है- ‘राजनेता’।
आखिर यह राजनेता आते कहां से हैं ? भारतीय लोक के तंत्र में
इनके आगमन को महज दो ही रास्ते हैं – पहला, जिन्हें जनता कभी नहीं चुनती, लेकिन जनता के
चुने हुए पंच उन्हें जनता के नाम पर चुनने का प्रायोजित प्रपंच करते हैं। इस
पायदान पर ‘श्रेष्ठी’ जनों का व्यापक प्रभाव है। वही ‘नामित’ राजनेताओं के
उत्पादन का उद्यम चलाते हैं। वह कभी खुद सीधे दखल नहीं देते, लेकिन राजनीतिक संगठनों और उनके नेतृत्व द्वारा अपनी पसंद को चुनवा कर
व्यवस्था के ऊपर प्रभावी भूमिका में थोप जरूर देते हैं। दूसरे होते हैं वो- जो जिन्हें
सीधे जनता चुनकर भेजती है और जिन्हें सीधे तौर पर आम जनता के प्रति जवाबदेह माना जाता
हैं ।
सियासी श्रेष्ठी और धंधे का गठजोड़
अब सवाल उठता है कि आखिर यह करते क्या हैं ? तो पहले विवेचना करते हैं नामित राजनेताओं’ की... हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था
में इन्हें भी चुना हुआ ही माना जाता है, परंतु सीधे जनता से नहीं, अपितु जनता
द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा पार्टी व्हिप के अधीन,‘पूर्व निर्धारित
परिणामों वाले चुनाव’ के तहत पहले से ही
जीतने की तयशुदा की गणनात्मक व्यवस्था में छद्म मतदान करवाकर । राज्य सभा,
विधानसभा, मेयर और जिला पचांयतों के प्रमुख इसका जीवंत उदाहरण हैं। मैट्रिक्स के
इस खेल में सामाजिक स्थिति, राजनैतिक कद
एवं वजूद, बाहुबल, धनबल, शीर्ष नेतृत्व से निकटता और खुद नेटवर्किंग स्किल आदि तमाम
ऐसे तत्व होत हैं जो उनकी दावेदारी के साथ-साथ चुने जाने की संभावनाओं को कमजोर या
मजबूत बनाते हैं ।
विगत दो दशकों से मीडिया के इलेक्ट्रॉनिक स्वरूप का उभार और उसका आम जनमानस पर
सीधा प्रभाव भी इस श्रेणी के राजनीतिज्ञों के लिए और स्वयं प्रचारीय जगत के लिए भी
मुनाफे का सौदा साबित हो रहा है। विषय की ‘अग्रिम किंतु
अल्पजानकारी’ के इस संगम में गूगल बाबा का प्रताप भौंदू बक्से के जरिए आम
जनता के बीच प्रखर वक्ता और विद्वानों के रूप में इनकी न सिर्फ छवि, बल्कि बारम्बारता
के चलते एक तरफा प्रतीक गढ़ने के प्रयास को भी सार्थक बना रही है। रोज-रोज, बल्कि
अब तो दिन में कई मर्तबा वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का रूप लेतीं ओपन डिबेट्स इन प्रतिभागियों
व ब्रेकिंग के दौर में खड़े मीडिया, दोनों
के लिए सह अस्तित्व के उद्धार का आसान मार्ग साबित हो रहा हैं।
एक और जहां विभिन्न ‘विवादित मुद्दों’ या फिर यूं कहें कि ‘साधारण मुद्दों को भी विवादित बनाकर’, उन पर हो रही अनावश्यक बहसों से आम दर्शक के बहुमूल्य समय को तो नष्ट किया
ही जा रहा है, साथ ही राजनीतिक दलों की टार्गेट ऑडिएंश को सैट करने के लिए समाज
में पहले ही बोए जा चुके विखंडन के बीज को खाद पानी दे, सियासी मुनाफे की नई फसड़
खड़े करने के सफलतम प्रयासों से चैनलों की
टीआरपी में तो भारी इजाफा हो ही रहा है, वहीं दूसरी ओर चुनाव लड़ने का जोखिम उठाए
बिना इंडायरेक्टली इलेक्ट होने वाले पोटेंसियल प्रोफेशनल्स या व्यवस्था मुताबिक
कहें कि राजनीतिक संभावनाओं वाले उत्पादों की जमकर ब्रांडिंग हो रही है।
मीडिया का यह वर्ग आम जनता की नजर में इन्हें ज्ञानी या विद्वान राजनेताओं की छवि के तौर पर
प्रस्तुत करता है और चीख पुकार या अब तो यूं कहें कि छीना झपटी के दौर में उनकी
वाकपटुता का लोहा मनवाने में हर पल जुटा हुआ है। वह तर्क कर रहे हैं या कुतर्क गढ़
रहे हैं इससे स्वनामधन्य पत्रकारीय श्रेष्ठियों को कोई फर्क नहीं पड़ता। नतीजन, ऐसे
वाकपटु चेहरों को विभिन्न राजनैतिक दलों व निर्णायक अधिकार रखने वालों की नजर में जल्द
ही ऐसी विशिष्ट पहचान प्राप्त होती है, जिससे शीर्ष नेतृत्व भी सकारात्मकतापूर्वक प्रभावित
हुए बिना नहीं रह पाता । बेहतर विजिबिल्टी की वजह से एक बार चुने जाने के बाद तो
ऐसे राजनेताओं के लिए मौकों की बारम्बार भरमार पैदा हो जाती है। परिणाम स्वरूप ये
लोग सत्ता प्रतिष्ठानों के विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर भी प्रायः विराजमान हो जाते
हैं ।
संचार कला की विशेष योग्यता की व्यवस्थागत सबसे बड़ी खामी यह होती है कि अमूमन
यह लोग अन्य समकक्ष एवं जनता से चुनकर आए लोगों को कम ज्ञान वाला जता, उन्हें
तुच्छ प्रदर्शित कर, अल्पज्ञानी साबित करते हुए उनका आत्मविश्वास सामाजिक रूप से
डिगाने का भी कोई प्रयास नहीं चूकते हैं । संगठनों व राजनैतिक दलों में चर्चाओं व
संसद के दोनों सदनों में यह दृश्य एक दम आम है । दूसरी बड़ी बात यह कि , क्योंकि ये लोग सभासदों, विधायकों व लोक सभा के सांसदों
के रूप में जनता से सीधे चुनकर नहीं आते हैं, अतः इनका आम जनता या अपने क्षेत्र के
मतदाताओं से सीधा संवाद स्थापित कर उनकी जरूरतें, उनकी समस्याएं और सुख-दुख साझा
करने की जिम्मेदार को स्वीकार करना तो दूर इस बाबत सोचने तक का कभी प्रश्न ही नहीं
उठता। इसीलिए, अपने निर्वाचन क्षेत्र में इन्हें नियमित आने-जाने की जरूरत और आम
जनता से मुलाकात करने के लिए समय निर्धारित करने की कोई बंदिश भी नहीं होती।
नतीजन, समय के बचे हुए इस बड़े हिस्से का यह लोग राजनीतिक, प्रशासनिक और मीडिया
नेटवर्किंग डवलप करने में बखूबी इस्तेमाल करते हैं। इसके बाद भी जो समय बचा रह
जाता है, उसे सामयिक विषयों की जानकारी हासिल करने और व्यक्तिगत विकास में खपाते
हैं। यानि जनता की सेवा के समय को राजनेताओं का यह वर्ग अपने नए संबंध स्थापित
करने, पुरानों को प्रगाढ़ बनाने और उनसे मिली ऊर्जा के जरिए निज व्यवसाय को उन्नत
कर आर्थिक और सामाजिक रूप से खुद को उत्तरोत्तर मजबूत बनाने में करते हैं।
शहद और मक्खियों की फौज
अब बात दूसरी श्रेणी के उन राजनेताओं की – जो सालों तक जमीनी
स्तर पर राजनैतिक द्वन्द्वों से जूझने और अंदरूनी एवं बाहरी सियासी सूरमाओं को
पछाड़ने का कठिन परिश्रम करने के बाद आम जनता के बीच में जैसे-तैसे अपनी पैठ बनाते
हैं, उसके बाद भी दर्जन भर श्रेष्ठियों से श्रेष्ठता के मुकाबले की अजमाइश के बाद
ही आम जनता इन्हें चुनकर सदन भेजती है। चूंकि
आम नागरिकों के समर्थन से ही यह वर्ग राजनीति में सफलता की सीढ़ियां चढ़ता है
इसलिए उनसे सीधा संवाद भी करता है। नतीजन, इसे न केवल उनकी दिन-प्रतिदिन की
समस्याओं पर ध्यान देना पड़ता है, बल्कि उनके बीच में प्रभाव रखने वाले, छोटे-छोटे
समूहों का प्रतिनिधित्व और नेतृत्व करने वाले छुटभइये टाइप्स कथित नेताओं को
व्यक्तिगत लाभ प्रदान करने में या प्राप्त करवाने में सहायक एवं उत्प्रेरक की
भूमिका का भी जाने-अनजाने में निर्वहन करना पड़ता है ।
यह कड़वा सच है कि ऐसे लाभार्थियों का लोकतंत्रीय व्यवस्था में स्थित
छोटे-छोटे जातिगत, धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक समूहों के बीच अपना एक प्रभाव व
स्थान होता है, किंतु इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि ये लाभार्थी,
बार-बार व्यक्तिगत लाभ लेने की कोशिश में अधिकांशतः इन चुने हुए जन-प्रतिनिधियों
के आर्थिक और व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करने में सफल हो जाते हैं। वहीं दूसरी ओर
राजनीतिक और व्यक्तिगत जीवन में संतुलन बनाने के की कोशिशों के चलते इस श्रेणी के
राजनेताओं को इतना अधिक परिश्रम करना पड़ता है कि दोनों दिशाओं में खोना-पाना लगा
रहता है, लेकिन सत्ता महा ठगिन का मंत्र जानने के बावजूद सियासी ताकत हासिल करने
के लिए यह सियासतदारों का यह वर्ग तलवार की धार पर चलने का हुनर सीख ही लेता है ।
समय का पहिया तो बिना रुके घूमता ही रहता है, लेकिन चुने हुए यह राजनेतागण, अमूमन
‘बेहतर समय प्रबंधन’ में
असफल होने के कारण केवल कुछ लोगों को ही व्यक्तिगत लाभ पहुंचा पाते हैं । ऊपर से
उनकी मीडिया और राजनीतिक नेटवर्किंग ही नहीं तत्कालिक विषयों पर अध्ययन एवं विश्लेषण
की सामयिक तैयारी लगातार घटती चली जाती है । इतना ही नहीं छुटभइये नेताओं एवं तयशुदा
लाभार्थियों से घिर जाने कारण अक्सर इस श्रेणी के राजनेताओं का आम, गरीब और निचले
स्तर पर वास कर रहे जन साधारण से ‘संपर्क एवं संवाद’ धीरे-धीरे घटता चला जाता है। चाटुकारों
के मकड़ जाल में घिरे यह राजनेतागण अक्सर ही अपनी प्रशंसा से मन ही मन गदगद होते
रहते हैं एवं कई बार तो स्थितियां ऐसी भी हो जाती हैं कि चाटुकारिता से उन्हें न
जाने कौन सी, किंतु एक अनजानी ऊर्जा अवश्य ही प्राप्त होती नजर आती है।
जबकि, सच्चाई यह है कि खराब समय प्रबंधन और अनुशासनहीनता के कारण ही इनके निकट
चाटुकारों की स्थिति शहद पर डेरा जमाने को
आकुल मक्खी रूपी फौज की शक्ल अख्तियार करने लगती है। यहीं होती है, नौकरशाही की
एंट्री। जो इसी फौज में शामिल छोटे से लेकर बड़े लाभार्थियों को संतुष्ट कर
राजनेताओं का विश्वास जीतने और खुद को इनका सबसे बड़ा हितैशी साबित करने के साथ ही
राजनेताओं के अंदर छिपी पैसा कमाने, लाभ उठाने की मानवीय प्रवृत्ति को न सिर्फ
जगाती है, बल्कि दिनों दिन किश्तों में उसकी ललक बढ़ाने में भी जुट जाती है। नतीजन,
इसके वशीभूत हो यह राजनेता पहले छोटे-छोटे भ्रष्टाचार और फिर बड़े की ओर चलते चले
जाते हैं। ऐसे राजनेताओं की प्राथमिक मूक स्वीकृति के पीछे निश्चित ही छुटभइये
नेताओं और अपने प्रतिनिधियों को नाराज न कर पाने की मजबूरी भी छिपी रहती है, जिसे
यह जान कर भी अनजान बने रहना का दिखावा करते हैं।
वहीं दूसरी ओर, धरातल पर इनका ग्राफ ऊपर जाने के बजाय अमूमन कुछ समयावधि के
लिए सीधी रेखा में स्थिर और उसके बाद धीरे-धीरे हाथ से फिसलती रेत की माफिक नीचे की
ओर गिरता ही चला जाता है। अपवाद सरीखे एक ही क्षेत्र से लगातार कई बार चुनाव जीतने
वाले जनप्रतिनिधियों को उनके क्षेत्र की जनता के बीच में अपने प्रभाव को कायम रखने
के लिए प्रतिक्षण, निर्विवादित रूप से आम जनता को न केवल समय देना पड़ता है, अपितु
उनका दबाव झेलने की कला में भी निपुणता हासिल करनी पड़ती है ।
नौकरशाही का प्रादुर्भाव
दोनों रास्तों से सियासी मंजिल हासिल करने के बाद सदन की
दहलीज में दाखिल हुए राजनेताओं के आगे असल मुसीबत तब खड़ी होती है जब उन्हें
मंत्रिमंडल में शामिल किया जाता है। उनके शहद बनने के बाद भिनभिनाती मक्खियों का
सरकारी दल अब टिडिडयों की शक्ल अख्तियार कर लेता है। इसे आपको राजनेताओं की दोनों
श्रेणियों के लिए अलग-अलग तरीके से समझना होगा। यह तो स्पष्ट हो ही चुका है कि
राजनीति के पहले अभिजात्य वर्ग यानि नामित जनप्रतिनिधियों की सदन तक पहुंचने की
यात्रा के दौरान आम जनता से संवाद शून्यता व जमीनी स्तर पर व्यवहारिक रूप से
समस्याओं की समझ लगभग खत्म सी ही होती है... ऊपर से जिस विषय की इन्होंने पढ़ाई ही
नहीं की उस मामले का इन्हें मंत्रालय सौंप दिया जाता है तो यह पूरी तरह से
नौकरशाहों और अपने पुराने सफर के साथी रहे कुछ चुनिन्दा सरकारी अधिकारियों की समझ
पर निर्भर होकर रह जाते हैं। जब भी नीति-रीति बनाने की बात आती है तो उसमें इन
राजनेताओं के बजाय नौकरशाहों की समझ का ही भरपूर इस्तेमाल होता है।
और यह नौकरशाह तब करते क्या हैं ... पुराने माल की रीपैकिंग, डिजाइनिंग और
मॉड्यूलिंग करने में माहिर नौकरशाही अपने चातुर्य कौशल से दशकों पहले बनी नीतियों के पुनर्निर्माण
की प्रक्रिया की बारम्बारता का दोहराव। जिसे वह पुनः नई सरकार और राजनीतिक दल की
टार्गेट ऑडियंस के साथ ही मंत्रीवर की निजी पसंद के आधार पर जनता के बीच मन-भावन व
लोक लुभावन रूप में फिर से परोसने के लिए तैयार कर देती है । इतना ही नहीं जब कभी
इस पर सवाल उठता है तो पहले नौकरी बचाने में माहिर नौकरशाह और फिर दूसरे सभी को मूर्ख
साबित करने में माहिर हो चुके पहली कैटेगरी के वाकपटु नेता आम जनता को लच्छेदार
एवं विद्वतापूर्ण तरीके से तर्कसंगत भाषा शैली के जरिए इन नीतिगत परिवर्तनों का
ऐसा बखान करते हैं कि मानो बस इन्हीं नीतियों की खोज के लिए तो उन्होंने अलबर्ट
आइंसटीन की माफिक अपना पूरा जीवन प्रयोगशालाओं में ही गुजार दिया हो। उनके तर्क कहें या फिर कुतर्क,
जिन्हें संचार माध्यमों के पुराने कृतार्थियों के जरिए परोस और सही साबित करा वह वाहवाही
लूटने में भी काफी हद तक सफल हो जाते हैं ।
कड़वा सच यह है कि धरातल से कोसों दूर, व्यवहारिक समस्याओं
की जानकारी के आभाव और मात्र सतही समझ के चलते न तो ऐसी नीतियों के दूरगामी परिणाम
आते हैं और ना ही यह सफल हो पाती हैं, लेकिन इसे भारतीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य
ही कहेंगे कि वक्त और पैसे की बर्बादी
वाली ऐसी तमाम योजनाओं की असफलता की जिम्मेदारी ही यहां तय नहीं है। बावजूद इसके
गलतियों का यह दोहराव अमूमन हर दल की सरकार में निरंतर चलता रहता है। सब कुछ पता
होने के बाद भी शीर्ष नेतृत्व जब कभी
किसी जिम्मेदारी को प्रदान करने के लिए उपयुक्त व्यक्ति की खोज करता है तो जनता
द्वारा सीधे चुने गए प्रतिनिधियों की अपेक्षा पहले वर्ग के राजनीतिज्ञ, अर्थात
नामित लोगों को ही प्रायः उसकी वरीयता प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।
नौकरशाही और घुटने पर राजनेता
नौकरशाही के आगे राजनेताओं के घुटने टेकने की दूसरी बड़ी वजह है उनकी
अज्ञानता... अक्सर होता यह है कि मंत्रालय के गठन के दौरान जनप्रतिनिधियों की
रैंक, कैबिनेट, राज्य मंत्री स्वतंत्र प्रभार और राज्य मंत्री उनकी सियासी कद काठी
और तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था में जरूरत के मुताबिक तय की जाती है, लेकिन कभी भी उनकी
पढ़ाई लिखाई और जीविकोपार्जन के अनुभवों को आधार बनाकर मंत्रालय नहीं बांटे जाते।
नतीजन, जिसे सूचना एवं संचार तंत्र के प्रवाहों की थ्योरी तक पता नहीं होती उन्हें
सूचना एवं प्रसारण मंत्री बना दिया जाता है.... जिनके घर का बजट खुद उनकी पत्नियां
तय करती हैं वह वित्त मंत्रालय संभालते नजर आते हैं... और जिन्हें अपने पड़ौसी का
नाम तक पता नहीं होता उन्हें विदेश मंत्रालय जैसी जिम्मेदारी दे दी जाती है... ऐसे
ही जिन्हें सैन्य संगठनों, देश की भौगोलिक, सामाजिक और रीति-नीतिगत बारीकियां पता
नहीं होती उन्हें गृह और रक्षा सौंप दिया जाता है... यहां तक भी चल जाता है, लेकिन
जिसे गेहूं और जौ की बालियों के बीच का अंतर नहीं पता उसे जब कृषि और जिसने कभी
नौकरी के लिए धक्के नहीं खाए उसे श्रम एवं रोजगार और जो कभी किताबों के चक्कर में
नहीं पड़ा उसे शिक्षा जैसे अहम मंत्रालय दे दिए जाते हैं। नतीजन, केंद्र से लेकर
राज्य की सरकारों तक के मंत्रिमंडलों में व्यवस्था की जमीनी जानकारी न रखने वाले
सियासी सूरमाओं को विभागों के कल्याण की जिम्मेदारी सौप दी जाती है।
ऐसे में होता यह है कि पहला साल तो माला पहनने, फीता काटने और मंत्री बनने के
बाद मिली सेवाओं का लुत्फ उठाने में कब गुजर जाता है पता ही नहीं चलता। दूसरे साल
में वह योजनाओं के नाम जान पाते हैं और तीसरे साल में नई योजनाएं बनाने की तैयारी
करते हैं... चौथे साल में जिनका खाका खिंच पाता है। आखिर में आ जाता है चुनावी
साल... तो आपको प्रचार भी करना है, अपनी मौजूदगी और सफलता का ग्राफ भी प्रदर्शित
करना है... बस इसी आपाधापी में जनता और विभाग का कल्याण खो जाता है। सवाल उठता है
कि फिर पूरे पांच साल मंत्रालय चलाता कौन है? जिसका सीधा जवाब है नौकरशाह... वह भी तब जब
आपकी उससे पटरी खा रही हो... नहीं तो वह धेला भर भी न होने दे।
यही वहज थी, जिसके चलते मंत्री अपनी पसंद के
नौकरशाहों की तैनाती अपने मंत्रालयों में करवाने के लिए सरकार पर दवाब बनाते थे और
अक्सर उसमें वह सफल भी हो जाते थे, लेकिन पिछली सरकार में तो यह हक भी उनसे छीन
लिया गया... कौन अफसर किस मंत्री का ओएसडी होगा... किसे मंत्री के पर्सनल स्टाफ के
पैरलल लगाया जाना है... और किससे विभाग की मुखबिरी करानी है... सब कुछ
प्रधानमंत्री कार्यालय से तय हो रहा है... नतीजन, पिछली सरकार में आप मंत्री तो
थे, लेकिन आपका विभाग चला कोई और ही रहा था... इस सरकार का हाल क्या होने वाला है
आप इसी बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि पहले तो शपथ ग्रहण के चार घंटे पहले तक किसी
को यह खबर नहीं थी कि उसे मंत्री बनाया जाना भी है या नहीं... बस सभी अपने फोन को
खाली रखने में जुटे हुए थे... कि मेरा नंबर आएगा... जिनका आ भी गया... और उन्हें
शपथ लेने के लिए राष्ट्रपति भवन के अहाते में पहुंचने तक पता ही नहीं था कि क्या
पोर्टफोलियो रहेगा... हाथ में पर्चा आया और जैसे ही मैं... फलाना बोला... तब जाकर
समझ आया कि खेल हो गया... ऊपर से एक चीज जो फिर भारी पड़ गई... वह थी नौकरशाही... सालों तक एडियां घिसने के बाद इस कतार तक पहुंचे
राजनेताओं ने जब अपने से पहले बिना चुनाव लड़े नौकरशाहों की फौज को शपथ लेते हुए
देखा तो उन पर घड़ों पानी फिर गया... लेकिन, राजनेताओं के घुटनों पर आने के लिए
नौकरशाह नहीं वह खुद जिम्मेदार हैं... क्योंकि उन्होंने टाइम और नॉलेज मैनेजमेंट
से कब का किनारा कर लिया था।
जनता जनार्दन या गिनीपिग
अमेरिका एवं यूरोपीय देशों की तर्ज पर सत्ता हासिल करने के लिए हिंदुस्तानी
सियासत की प्रयोगशाला में चुनाव प्रबंधन का दखल भी पिछले एक दशक से खासा बढ़ चला
है। अधिकांश राजनैतिक दलों ने संगठनात्मक बदलाव कर अच्छा चुनाव प्रबंधन करने वाले
लोगों को विशेष स्थान दे या यह कहना ज्यादा उचित होगा कि हायर कर पार्टी का मजबूत
पिलर घोषित कर दिया है। ऐसे दल जहां संगठन कमजोर हैं, उनके द्वारा कुछ नामी
विशेषज्ञों के द्वारा एक नियत धनराशि के भुगतान से चुनाव प्रबंधन के व्यवसायिक प्रयोग
किए जाते हैं ... ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि आखिर इस प्रयोगशाला में आम मतदाता
की हैसियत क्या रह जाती है ? तो जनाब, जवाब इसका जवाब है महज... गिनीपिग, जिसे इस
लोकतांत्रिक व्यवस्था में तब तक हांका जाता है जब तक वांछित नतीजों की प्राप्ति न
हो जाए... और यह नतीजे बेहद सफल भी हो रहे हैं। क्योंकि आम मतदाताओं का एक बड़ा
वर्ग और राजेताओं की मक्खियों के पंजों से चिपका पड़ा है... जिसे व्यवस्था
परिवर्तन और बेहतर जीवन तो बाद में चाहिए... उससे पहले शराब, पैसा और अपने वोट की
कीमत वसूलनी होती है। यही वजह है कि एक आम आदमी तो दूर उच्च मध्यम वर्ग का व्यक्ति
भी चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाता... क्योंकि उसे पता है कि निर्वाचन आयोग
के कागजों में दर्ज होने वाले छद्म लेखों के इतर लड़ाई का असल खर्च करोड़ों में ही
आना है... और उसकी हैसियत ऐसी नहीं होती कि गिनीपिग की पीठ में बने छेद से सिक्के
डाल उसका पेट भर सके।
उम्मीद अभी जिंदा है...
मेरे विचार से बेहतर चुनावी प्रबंधन से कुछ चुनाव तो जरूर जीते जा सकते हैं, लेकिन
आम जनता के साथ दोतरफा संवाद स्थापित कर समुचित प्रतिनिधत्व मात्र से ही, किसी भी
लोकतांत्रिक व्यवस्था का समग्र विकास संभव हो सकता है। यदि जनता द्वारा सीधे चुने
जा रहे राजनेता अपनी वर्तमान कार्यशैली एवं समय प्रबंधन का पुनर्वलोकन कर लें तो
उनकी न सिर्फ खोई हुई जमीन बच सकती है, बल्कि नॉमिनेटिड पॉलिटिशीयन के आगे वजूद
बचाने का संकट भी निपट सकता है... और यदि भी कर सकें तो कम से कम नीतिगत निर्णय
लेते समय व्यवस्था को व्यवहारिक, सीधी-सपाट, सुगम,सुलभ व सहज बना दिया जाए, तो न
सिर्फ राजनेताओं के पास तथाकथित लाभार्थियों की संख्या स्वयं ही घट जाएगी, बल्कि लाल
फीताशाही को भी खत्म किया जा सकता है... जिसके बाद निश्चित ही सियासी सिफारिशों और
व्यवस्था में दखल का दौर खत्म हो जाएगा... लोकतांत्रिक गिरावटें तो दूर हो ही
सकेंगी, साथ ही देश फिर से सोने की चिड़या बन सकेगा... लेकिन यह तभी संभव हो सकता
है, जब जनता के बीच से, जनता के चुने हुए लोग जनता के भले की सियासत करें... जिसकी
उम्मीद काफी हद तक अब भी जिंदा है.. देश के युवाओं और कमर्ठ नेताओं में...।