• गांव-ढाणी से निकल रहे डॉक्टर-इंजीनियर...

    डॉक्टर का बेटा बने डॉक्टर और इंजीनियर का बेटा इंजीनियर... सदियों से चली आ रही यह कहावत अब गलत साबित होने लगी है। मजदूर-किसान, कारीगर और कुली ही नहीं दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर रहने वाले लोगों के बच्चे भी बड़ी संख्या में डॉक्टर इंजीनियर बन रहे हैं। देश की तकदीर बदलने का बहुत हद तक श्रेय जाता है कोटा की शैक्षणिक व्यवस्था को। जहां कोचिंग संस्थान आभावों के बीच जिंदगी जीने को मजबूर प्रतिभाओं को बड़ी सिद्दत से तराशने में जुटे हैं और दिन रात एक कर आईआईटी से लेकर एम्स जैसे बड़े शैक्षणिक संस्थानों में दाखिला दिलाने के लिए इन बच्चों को तैयार कर रहे हैं। नतीजन,  शहर ही नहीं गांव भी तेजी से बदल रहे हैं और वहां के होनहार युवा भी प्रतियोगी परीक्षाओं में रोज नए कमाल दिखा रहे हैं।

    बदल गई कुमारान की दुनिया

     
    चूरू जिले के तारानगर कस्बे का गांव ढाणी कुमारान... करीब 600 घरों की बस्ती...चार साल पहले तक इंजीनियर और डॉक्टर बनने की बात तो दूर यहां के बच्चे आईआईटी और एम्स का नाम तक नहीं जानते थे... लेकिन पिछले तीन साल में तस्वीर बदल गई... भागचंद और विनोद कुमार सबसे पहले ऐसे बच्चे थे जो डॉक्टर बनने का ख्वाब लेकर कोटा आए... पैसे की तंगी आड़े आई तो इनकी प्रतिभा और ललक देख कोचिंग संस्थानों ने आर्थिक मदद में भी कोई कमी नहीं छोड़ी...नतीजा, दोनों छात्रों का मेडिकल के लिए चयन हो गया... लड़कों की सफलता से लड़कियां भी प्रभावित हुईं और इस बार इसी ढाणी की मैना कुमारी ने नीट में अखिल भारतीय स्तर पर 588वीं रैंक हांसिल कर सफलता के नए दौर को आगे बढ़ाया। मैना के पिता  धन्नाराम एक छोटे से खेत के टुकड़े पर  किसानी कर परिवार चलाते हैं। मैना गांव की पहली ऐसी लड़की है जो डॉक्टर बनने जा रही है। जिसे देख इस बार करीब डेढ़ दर्जन ढाणी कुमारान के डेढ़ दर्जन बच्चे आर्थिक तंगी के बावजूद कोटे के कोचिंग संस्थानों में अपने ख्वाब पूरे करने के लिए आए हैं। 

    आभावों को दरकिनार रच रहे सफलता का इतिहास


     करौली जिले की टोडाभीम पंचायत का गांव पिनसुरा... जमीन के छोटे से टुकड़े से परिवार का पेट भरना मुश्किल हुआ तो इस गांव के बाशिंदे मनीराम ने प्राइवेट नौकरी शुरू कर दी... लेकिन उसका बेटा नेतराम आभावों भरी जिंदगी के बावजूद कुछ बड़ा करने को उतावला था... मेडिकल की तैयारी करने कोटा आया, लेकिन फीस की बात तो छोड़ो कोटा में दो दिन रहने तक के लिए पैसों का इंतजाम नहीं था... नेतराम की छटपटाहट देख दोस्त आगे आए और कुछ पैसों का इंतजाम किया... उसकी प्रतिभा देख कोचिंग संस्थान के शिक्षक भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके, लेकिन एक दिन उसने पैसे की तंगी के चलते पढ़ाई छोडऩे का फैसला कर लिया... एक बार फिर दोस्तों और कोचिंग संस्थान और शिक्षकों ने नेतराम का हाथ थाम लिया... नतीजा भी बेहद सुखद रहा, नीट की रैंक जारी हुई तो गरीब किसान का बेटा अखिल भारतीय स्तर पर 1270वीं रैंक लाने में सफल रहा और अब देश के एक प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा है। टोडाभीम का नेतराम अकेला नहीं है...इस गांव के गरीब किसानों के कई बेटे पहले भी आभावों को दरकिनार कर सफलता की स्वर्णिम इबारत लिख चुके हैं। जिसमें डॉ.सलीम, सतवीर गुर्जर, समन्दर हर्षाणा और बलवीर गुर्जर जैसे नाम खास हैं। इस गांव के करीब 18 बच्चे सबकुछ पीछे छोड़, नया इतिहास लिखने के लिए कोटा में पढ़ाई कर रहे हैं। 

    कच्ची पगडंडियों से निकल रहे डॉक्टर


     झालावाड़ जिले के बकानी कस्बे के निकट धोबडिय़ा गांव... गांव तक पहुंचने के लिए न तो सड़क है और नाही बिजली टिमटिमाती है... बाकी मूलभूत सुविधाओं की बात करना तो बेमाइनी ही है... गांव के इन हालातों से ही यहां के बाशिंदों की माली हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है... बावजूद इसके नाममात्र के किसान प्रभुलाल अपने बेटे को डॉक्टर बनाने का ख्वाब देखते थे... लोग उनका मजाक उड़ाकर कहते... तेज हवाएं चलने और बादलों के चार दिन बरसने पर तो उधार लेना पड़ता है, बेटे को पढ़ाने के लिए तो सबकुछ गिरवी रखना पड़ेगा... बावजूद इसके प्रभुलाल डिगे नहीं और अपने बेटे लखन का दाखिला कोटा के नामी कोचिंग संस्थान में करवा दिया... आज वो कोटा के ही मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा है। लखन के बाद धोबडिय़ा ही नहीं आसपास के दो दर्जन बच्चे कोटा आकर अपने ख्वाबों में रंग भर रहे हैं। ऐसे ही बूंदी जिले के नैनवां कस्बे के पास बसे गांव जरखोदा का बाशिंदा शुभम पहला छात्र है जो डॉक्टर बनने जा रहा है।
     

    किसान के विकलांग बेटे की लंबी छलांग 

    बिहार का राजगीर कस्बा में गरीब किसान के घर जन्मा विवेक... आर्थिक तंगी से जूझता परिवार और ऊपर से विवेक की लाइलाज विकलांगता... पाई-पाई जोड़कर पिता ने बेटे का इलाज कराया, लेकिन आखिर में डॉक्टरों ने भी हाथ खड़े कर दिए... बोले विवेक का हाथ ऑपरेशन कर चला भी दिया तो शरीर के बाकी अंग काम करना बंद कर देंगे... बावजूद इसके न विवेक ने हार मानी और ना ही उसके परिवार ने... इंजीनियर बनने की ख्वाहिश पूरी करने के लिए खेत गिरवी रख पिता विवेक का दाखिला कराने कोटा के कोचिंग संस्थान पहुंचे... लेकिन पहली ही नजर में उसकी प्रतिभा ने ऐसी छाप छोड़ी कि संस्थान के निदेशक बिना फीस के ही उसे पढ़ाने को राजी हो गए... विवेक ने भी पीछे मुड़कर नहीं देखा और सफलता का ऐसा इतिहास लिखा कि पहली ही बार में पीडब्ल्यूडी कोटे में अखिल भारतीय स्तर पर 25 वीं रैंक हासिल कर डाली। अब वो आईआईटी दिल्ली में अध्ययनरत है।

    फॉल से बुने आईआईटियंस बेटों के ख्वाब 

    मध्य प्रदेश का बेहद पिछड़ा इलाका कटनी... किराए के एक घर में साडिय़ों पर फॉल लगाकर गुजर-बसर करतीं इंद्रा राय... पति ने साथ छोड़ा तो मानो दुनिया ही रूठ गई... लेकिन बेटों को बड़ा आदमी बनाने का ख्वाब इस औरत को चैन से बैठने नहीं देता...17 साल तक  पांच-पांच रुपए इकट्ठा कर  बड़े बेटे जतिन को इंजीनियरिंग की तैयारी करने कोटा भेजा... मेहनत का फल उम्मीदों से कई गुना मीठा निकला... जतिन पहली ही बार में आईआईटी क्रेक करने में सफल रहा... छोटे भाई आसित राय के भी बारहवीं में 84 प्रतिशत  अंक आए, लेकिन इंद्रा के पास इतने पैसे नहीं थे कि बड़े भाई की तरह उसे भी तैयारी के लिए कोटा भेज सके... ये खबर कोटा के प्रतिष्ठि कोचिंग संस्थान के मालिक को लगी तो उन्होंने मुफ्त में पढ़ाने के साथ ही रहने और खाने तक का इंतजाम कर डाला...आसित के पास खोने का कुछ नहीं था, लेकिन पाने को पूरा जहां सामने खड़ा था... दिन रात मेहनत की तो पहली ही बार में आईआईटी कानुपर में दाखिला हासिल करने में कामियाब हो गया। इंद्रा राय आसपास के इलाके के बच्चों को अब कोटा की राह दिखा रही है।

    छत्रपुरा गांव का पहला इंजीनियर


     कोटा जिले के इटावा क्षेत्र का गांव छत्रपुरा... सौ घरों की बस्ती के इस गांव में कहने के लिए तो ज्दातर लोग किसान हैं, लेकिन खेती इतनी है कि दो वक्त की रोटी तक जुटाना मुश्किल हो जाता है। नतीजन पेट पालने के लिए ज्यादातर लोग मजदूरी करते हैं। ऐसे में बच्चों को पढ़ा पाने के तो सवाल ही नहीं उठता... बावजूद इसके रामदयाल मीणा दिन रात अपने बेटे को बड़ा इंजीनियर बनाने का ख्वाब देखते थे... इस ख्वाब को पूरा करने के लिए वे कोटा आए और कोचिंग संस्थानों के चक्कर काटने लगे...फीस की रकम सुनकर उनका दिल बैठ गया और एक कोचिंग संस्थान के मालिक से पूछ बैठे कि क्या जिन लोगों के पास पैसा नहीं होता उनके बच्चे पढ़ नहीं सकते... बस उसी सवाल ने उनके बेटे अभिषेक की जिंदगी बदल दी... उस संस्थान ने अभिषेक की पढ़ाई का खर्च उठाने में देर नहीं लगाई और जिस गांव में पांचवीं कक्षा के बाद पढऩे के लिए स्कूल तक नहीं है, उसे उसका पहला इंजीनियर दे दिया। अभिषेक फिलहाल आईआईटी दिल्ली में अध्ययनरत हैं और गांव ही नहीं आसपास के गरीब और किसानों के बच्चों को आईआईटियंस बनने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। 

    गांव-ढ़ाणियों से निकली सफलता की ये कहानियां गरीब, किसान और मजदूरों के बच्चों की धमक का एहसास कराने के लिए काफी हैं। एक दौर था जब आईआईटी और एम्स में दाखिला लेना इस तबके के लिए किसी ख्वाब से कम न था। ख्वाब तो अब भी है, लेकिन अधूरा ख्वाब नहीं... बल्कि एक ऐसा ख्वाब जो उनके दायरे में समाने लगा है। इस सपने को हकीकत में बदलने का बहुत बड़ा श्रेय देश सबसे प्रतिष्ठि इंजीनियरिंग और मेडिकल संस्थानों में हर रोज सफलता की नई इबारत लिख रहे कोटा के कोचिंग संस्थानों को जाता है। जो आभावों के बीच जिंदगी बसर करने को मजबूर प्रतिभावान बच्चों की आर्थिक मदद करने में बिल्कुल भी पीछे नहीं हट रहे। एक दौर वह भी था जब आईआईटी और एम्स जैसे संस्थानों में शहरी, पढ़े लिखे और आर्थिक रूप से सक्षम परिवारों के बच्चों का ही बोल-बाला था, लेकिन कोटा के कोचिंग संस्थानों की कोशिश ने इस तस्वीर को बदल कर रख दिया है। अब छोटे-छोटे गांव ढ़ाणियों के रहने वाले, सरकारी स्कूलों में पढ़े और मूल भूत सुविधाओं से जूझ रहे इलाकों के बच्चे भी दाखिला हासिल कर अपना दबदबा कायम करने में जुटे हैं। कोटा में इस तरह के सैकड़ों उदाहरण हैं, जहां कोचिंग संस्थानों ने आर्थिक रूप से असक्षम बच्चों की मदद की और वे गांव या इलाके के पहले डॉक्टर इंजीनियर बनने में सफल हुए। वह भी आईआईटी और एम्स जैसे संस्थानों में प्रवेश हासिल कर। नीट और जेईई एडवांस के जरिए ऐसे करीब पांच सौ बच्चों ने सफलता की नई इबारत लिखी है। 

    आईआईटी में चौथे पायदान पर किसानों के बेटे 

    आईआईटी बोर्ड भी गरीब, मजदूर और किसानों के बच्चों के इस शानदार प्रदर्शन से अभिभूत है। आईआईटी गोवाहटी ने एडमिशन रिपोर्ट में इस सफलता को प्रमुखता से दर्ज करते हुए बताया है किसानों के बच्चे सफलता के चौथे पायदान तक पहुंच चुके हैं। चौंकानी वाली बात यह भी रही कि किसानों के बच्चों ने एडमिशन के मामले में प्रोफेशनल्स और पब्लिक सेक्टर में धूम मचाने वाले माता-पिताओं के बच्चों को पीछे छोड़ दिया। किसानों के 3213 बच्चे आईआईटी, एनआईटी और ट्रिपल आईटी में एडमिशन लेने में सफल रहे। जबकि इस बार कुल 10,576 छात्र इन संस्थानों में दाखिला लेने में सफल हुए थे। ऐसा नहीं है कि सफलता की यह इबारत पहली बार लिखी गई हो। आईआईटी द्वारा जारी रिपोर्ट में पिछले तीन वर्षों में इंजीनियरिंग में गांव-कस्बों से आने वाले छात्रों की संख्या में लगातार इजाफा होते हुए देखा जा सकता है। वर्ष 2013 में 12.74 प्रतिशत ग्रामीण स्टूडेंट्स ने सफलता का स्वाद चखा था। वहीं 2014 में 13.06 प्रतिशत स्टूडेंट्स ने। जबकि 2015 में क्वालिफाइड स्टूडेंट का यह आंकड़ा 25 प्रतिशत के आसपास था।

    प्रेरणा बनते हैं सफल छात्र

    कोटा में कोचिंग विकसित होने के बाद राजस्थान ही नहीं वरन पूरे देश में माहौल बदलने लगा है। किसी भी गांव से जब कोई छात्र आईआईटी या एम्स के लिए चयनित होता है तो वह दूसरे छात्रों को भी इसके लिए प्रेरित करता है। बाकी की कसर कोटा के कोचिंग संस्थान छात्रों को फीस में रियायत देकर पूरी कर देते हैं। उत्साह और मदद का यही सिलसिला आभावों के बीच जी रहे छात्रों को सफलता के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करता है। 
    सफलता की वजह 
    - कोटा का कोचिंग पैटर्न पूरे देश में बेस्ट है।
    - कोटा कोचिंग की सफलता का प्रतिशत देश के बाकी दूसरे शहरों से बहुत ज्यादा है। यहां आने वाला हर पांचवा छात्र सफल होकर ही लौटता है।
     - कोटा में स्टूडेंट्स को राष्ट्रीय स्तर की प्रतिस्पर्धा का माहौल मिलता है। इससे वे स्वयं का आंकलन बेहतरी से कर सकते हैं।
    - हिन्दी व अंग्रेजी दोनों माध्यम के विद्यार्थियों के लिए यहां बेहतर शिक्षण व्यवस्था होती है।
    - कोटा में 400 आईआईटीयन और 50 एमबीबीएस शिक्षक छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी  करवा रहे हैं।
     - शैक्षणिक नगरी में स्टूडेंट्स के लिहाज से हर सुविधा उपलब्ध है। 


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