मोम से पिघलते दिल और कंपकंपाते हाथों से रेत पर अफसाने लिखने का नाम नहीं है राजनीति। ये तो, पत्थर से दिल, पत्थर से अरमां और पत्थर पर पत्थर से लिखे फैसलों का मुकम्मल मुकाम है। इस दयार में हया, आबरू और नीयत ही नहीं भरोसे तक को ताक पर रखकर आते हैं लोग। शह और मात के खेल के बाद खाली हो चुके दामन में खोने को कुछ नहीं बचता। सिर्फ हासिल करने की हवस होती है सिर पर सवार, जो न जाने कब गुनाहों की गर्त में धकेल जाती है। किस्मत का सूरज जब पूरे शबाब पर होता है तब चौंधियाती आंखें इन्हें न देख पाती हैं और ना ही पत्थर हो चुके जज्बात इन्हें महसूस कर पाते हैं, लेकिन हर दिन की शाम लाजमी है। गुनाहों के रक्तबीज इसी ढ़लान के इंतजार में आस्तीन में मुंह छिपाए बैठे रहते हैं। रात ज्यों-ज्यों जवान होती जाती है... कभी सीड़ी तो कभी सीबीआई और कभी अय्याशियों की फेहरिस्त के साथ रक्तबीज सिर उठाने लगते हैं और जिंदगी का बाकी बचा वक्त इनसे निपटने में ही गुजर जाता है। सिंह और चंद्रा ऐसे ही रक्तबीजों का दूसरा नाम है, जो मुलायम को ले डूबे। वैसे भी अमर बेल जिस डाली को छू ले उस पेड़ की जड़ तक सूख जाती है। इसलिए जड़ का अस्तित्व बचाने को अमर प्रेम में लिपटी डाली को काट डालो अखिलेश....निर्मम होगा, लेकिन यही राजनीति का अगला फैसला होगा।
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